Friday, May 22, 2009

जूजू को पेटा अवॉर्ड



टेलिकॉम ऑपरेटर वोडाफोन के जूजू विज्ञापन को पेटा (पीपल फॉर एथिकल ट्रीटमंट फॉर एनिमल्स)ने भारत का पहला ग्लिटर बॉक्स पुरस्कार दिया है। पेटा का कहना है कि यह पुरस्कार विज्ञापनों में वास्तविक जानवरों की जगह मानव विकल्पों का इस्तेमाल करने वाली कंपनियों को दिया जाता है। पेटा ने इससे पहले वोडाफोन के पुराने विज्ञापनों में जानवरों के इस्तेमाल को लेकर आपत्ति जताई थी। पेटा की चीफ फंक्शनरी अनुराधा साहनी का कहना है कि इस विज्ञापन की लोकप्रियता से यह साबित होता है कि जानवरों के इस्तेमाल के बिना भी संदेश को पहुंचाने के बहुत से अन्य रास्ते मौजूद हैं।
ऐड कैरेक्टर हैं 'जूजू'
छोटे-छोटे सफेद चेहरे हैं 'जूजू', जो इन दिनों वोडाफोन के ऐड में नजर आ रहे हैं। वोडाफोन अपनी वैल्यू ऐडेड सर्विसेज के ऐड में इन्हें पेश कर रही है। ऐड फिल्म्स बनाने वाली कंपनी निर्वाण फिल्म्स ने जूजू कैरेक्टर्स के साथ ये ऐड बनाए हैं, जिन्हें दर्शक खूब पसंद कर रहे हैं। इससे पहले वोडाफोन का कुत्ते (पग) वाला ऐड भी निर्वाण फिल्म्स ने ही बनाया था। आपको यह देखकर लगता होगा कि ये एनिमेटेड कैरेक्टर्स हैं, जो मानवीय संवेदनाएं दिखाते हैं। पर ऐसा नहीं है। ये मुंबई के लोकल थिएटर से लिए गए स्लिम वुमन ऐक्टर्स हैं, जिन्हें सफेद कपड़े पहनाकर जूजू का रूप दिया गया है।


जूजू का क्रेज इतना ज्यादा है कि वोडाफोन के ऐड यूट्यूब पर सबसे ज्यादा वॉच किए जाने वाले विडियो हैं। फेसबुक पर जूजू के 1 लाख 30 हजार से ज्यादा फैन्स हैं और यह संख्या लगातार बढ़ रही है।



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लॉन्ज़री फुटबॉल लीग


लॉन्ज़री फुटबॉल लीग (LFL) सितम्बर 2009 में होनी है। 20 सप्ताह तक चलने वाले इन मैचों में ये फुटबॉल खिलाड़ी लॉन्ज़री में नज़र आएंगी। फिलहाल ये स्पोर्ट्स वुमन तैयारी के दौरान ट्रेनर्स के सामने खुद को फिट साबित करने में लगी हैं, ताकि इनका सिलेक्शन न्यूयॉर्क मैजिस्टी के लिए पक्का हो जाए, जो इस लीग में शामिल होनेवाली एक प्रमुख टीम है। आनेवाले लॉन्ज़री फुटबॉल लीग के लिए न्यूयॉर्क के फ्रीपोर्ट में जमकर तैयारी की जा रही है। इस लीग के 2009 सीज़न में 10 टीम मैदान में उतरेंगी। कुल 10 टीमों के बीच होनेवाला यह मैच सितंबर से जनवरी तक खेला जाएगा, जिसमें हर टीम को चार मैच खेलने का मौका मिलेगा।


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Thursday, May 21, 2009

किसे मिलेगा कौन सा मंत्रालय?

  • प्रणव मुखर्जी रक्षा मंत्रालय चाहते हैं
  • खुर्शीद और सिब्बल का नाम विदेश मंत्रालय के लिए
  • चिदंबरम वापस पाना चाहते हैं वित्त मंत्रालय
  • सुशील कुमार शिंदे का नाम गृह मंत्रालय के लिए
  • ममता और करुणानिधि दोनों को चाहिए रेल मंत्रालय
  • शशि थरूर को विदेश राज्यमंत्री बनाया जा सकता है
कैबिनेट में ज्यादा संख्या और महत्वपूर्ण मंत्रालयों के लिए यूपीए के घटक दलों ने कांग्रेस पर दबाव डालना शुरू कर दिया है। सबसे ज्यादा दबाव नंबर दो की ताकतवर पार्टी डीएमके बना रही है। उसके 18 सदस्य हैं मगर वह 3 कैबिनेट सहित 7 मंत्रिपद मांग रहे हैं। मंत्रालयों में डीएमके आईटी और कम्युनिकेशन, सड़क और परिवहन मंत्रालय जैसे बड़े बजट के मंत्रालयों की वापसी के साथ रेल और ग्रामीण विकास जैसे महत्वपूर्ण मंत्रालय भी मांग रहा है। सबसे ज्यादा 19 सीट पाने वाली तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) की निगाहें भी रेल पर हैं, ताकि पश्चिम बंगाल में दो साल बाद होने वाले विधानसभा चुनाव से पहले ममता दो रेल बजट अपने राज्य को समर्पित कर सकें।
कांग्रेस पिछली बार के मंत्रालय तो अपने पास रखना चाहती है, साथ ही आईटी और कम्युनिकेशन और देश में राष्ट्रीय राजमार्ग की दशा सुधारने के लिए सड़क और परिवहन में भी अपने आदमी बिठाना चाहती है। रक्षा, विदेश, गृह, वित्त, मानव संसाधन जैसे मंत्रालय कांग्रेस के सबसे काबिल मंत्रियों के पास रहेंगे। कांग्रेस में प्रणब मुखर्जी, ए। के। एंटनी और चिदम्बरम सबसे योग्य और हरफनमौला मंत्रियों में माने जाते हैं। वित्त मंत्रालय को लेकर प्रधानमंत्री थोड़ी पसोपेश में हैं, क्योंकि पार्टी की पसंद उनकी निजी पसंद से नहीं मिल रही है। पार्टी की तरफ से प्रणब को मंत्रालय देने की बात आ रही है, जबकि मनमोहन अपने मनमुताबिक आदमी चाहते हैं, जिनमें चिदंबरम और मोंटेक सिंह का नाम शामिल है। अगर प्रणब वित्त मंत्रालय पा जाते हैं, तो चिदंबरम होम मिनिस्टर बने रहेंगे। एंटनी का रक्षा मंत्रालय संभालना लगभग तय है। उधर कपिल सिब्बल के नाम पर विदेश मंत्रालय जैसी अहम मुहर लग सकती है और अगर ऐसा नहीं हो पाता है, तो उन्हें मानव संसाधन मंत्रालय दिया जा सकता है। सलमान खुर्शीद भी इस बार अहम नामों में से हैं। सलमान को मानव संसाधन या अल्पसंख्यक कल्याण मंत्रालय की कमान सौंपी जा सकती है। एनसीपी की तरफ से शरद पवार और प्रफुल्ल पटेल दावेदार होंगे। नैशनल कॉन्फ्रेंस की तरफ से फारूक अब्दुल्ला खुद मंत्री बनना चाहते हैं।


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Sunday, May 17, 2009

जिनके सिर जूता, उनकी मौजां ही मौजां

यह महज इत्तेफाक या कुछ और भी हो सकता है कि जो राजनेता लोकसभा चुनाव से पहले ' जूता मिसाइल' का शिकार बने, उन सभी ने जीत का स्वाद चखा है। केंद्रीय गृह मंत्री पी. चिदंबरम, भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी और उद्योगपति नवीन जिंदल चुनाव जीत गए हैं। इन सभी पर जूते उछाले गए थे। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की ओर भी जूता उछाला गया, लेकिन वह इस बार चुनावी मैदान में नहीं थे। वैसे वह एक विजेता के तौर पर उभरे , क्योंकि उनके नेतृत्व में कांग्रेस की अगुवाई वाले यूपीए ने सत्ता में शानदार वापसी की। कर्नाटक के मुख्यमंत्री बी. एस . येदियुरप्पा पर पिछले महीने हासन में एक चुनावी सभा के दौरान जूता उछाला गया था। उन्होंने अपने पुत्र बी . वाई . राघवेन्द्र के लिए जीत सुनिश्चित की। सिंह , चिदंबरम , आडवाणी और जिंदल उन नेताओं में शामिल रहे जिन पर चुनाव से पहले जूते उछाले गए थे , लेकिन असल में जूते उन्हें छू नहीं पाए थे। प्रधानमंत्री पर भी गुजरात में उनकी पहली चुनावी सभा के दौरान एक स्टूडंट ने जूता उछाला था। पिछले महीने आडवाणी पर एक चुनावी सभा के दौरान एक बीजेपी कार्यकर्ता ने चप्पल उछाली थी। वहीं , नवीन जिंदल पर स्कूल के एक रिटायर्ड टीचर ने जूता फेंका था। इसकी शुरुआत पत्रकार जनरैल सिंह के साथ हुई थी , जिन्होंने चिदंबरम पर 8 अप्रैल को एक पत्रकार सम्मेलन के दौरान जूता उछाला।


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जनादेश में दिखी "जन" की ताकत

15वीं लोकसभा चुनाव में एक बार फिर लोकतंत्र की जीत हुई है और जनादेश-2009में जन ने अपनी ताकत दिखा दी। कांग्रेसनीत यूपीए के हाथ आई वोटर की इस ताकत ने बड़े-बड़े राजनीतिक विश्लेषकों को धराशाई कर दिया है। क्या इस परिणाम को कांग्रेस के पक्ष में बिल्ली के भाग्य से छींका फूटने जैसी बात नहीं मानी जा सकती? या फिर वोटर के पास कांग्रेस के हाथ में अपना हाथ सौंप देने के सिवा दूसरा कोई विकल्प नहीं था?
इस चुनावपरिणाम को देश का बौद्धिक नेतृत्व रखने का दावा करने वाले वामपंथियों के मुंह पर वोटर का करारा तमाचा क्यों नहीं कहा जा सकता? और, आम आदमी का सबसे बड़ा हितैषी होने का खम ठोकने वाली भारतीय जनता पार्टी की नैतिक पराजय क्यों नहीं है? और, इस चुनाव परिणाम को ऐसे भी देखा जा सकता है कि भाजपा और कांग्रेस के झगडे में वोट लूटने के इंतजार में बैठी बसपा व सपा जैसी पार्टियों की उम्मीदों पर वज्रपात हो गया। अब इसके जो भी मायने निकालें जायें लेकिन वोटर ने सचमुच "जन" की परवाह न करने वालों की हवा निकाल ही दी है।
उत्तर प्रदेश के संदर्भ में देखें तो इस जनादेश के निहितार्थ और भी तीखे रुप में सामने आ रहे हैं। अपने गुजरने से पहले सड़कों को पानी डलवाकर धुलाई करवाने वाली, चाटुकार अफसरशाही और बिना रीढ़ वाले सलाहकारों से घिरीं प्रदेश की मुखिया क्या इस जनादेश से कोई सबक लेंगी? कल्याण की दोस्ती के मकड़जाल में फंसे और जया प्रदा की लाज बचाने के लिए आजम खां तक को किनारे लगा बैठे मुलायम क्या इस जनादेश के संदेशों को पढ़ने की कोई कोशिश करेंगे? टिप्पणी लिखे जाने तक आजम खां ने पार्टी के संसदीय बोर्ड से इस्तीफा दे दिया है।
क्या इस जनादेश को समझ कर यूपी को अपना मठ मानने वाले भगवाधारी भाजपा "मठाधीश" बनने की बजाय देश की "जनता की पार्टी" बनाने की दिशा में कोई पहल करेगी?
वोटर ने तो अपना काम पूरा कर डाला है और इस जनादेश पर उत्तर प्रदेश की सारी जनता को जश्न मनाना चाहिए। जश्न इसलिए कि इस जनादेश में देश के सबसे अमीर उम्मीदवार पीलीभीत से कांग्रेस के वीएम सिंह की जमानत जब्त हो गयी तो पुरखों की गाढ़ी कमाई को पिछले कई महीनों से लखनऊ की जनता निछावर करते जा रहे अखिलेश दास गुप्ता का भी हाल बुरा ही कर दिया है। साफ संदेश हैं कि पैसे के बूते पर हर तरफ लहर का दावा करने के बाद भी आखिरी फैसला जनता के ही हाथ में है। उत्तर प्रदेश की जनता को जश्न इसलिए भी मनाना चाहिए कि इस जनादेश ने धन बल के साथ ही बाहुबल के भी चारो खाना चित कर डाला है। भारतीय संविधान में आस्था रखने वाले और समाज के नियम कानूनों में यकीन रखने वाले हर एक आदमी को क्या इस बात का जश्न नहीं मनाना चाहिए कि इस जनादेश ने वाराणसी में "गरीबों के मसीहा" कहे गए मुख्तार अंसारी को उनकी हैसियत बता दी है, क्या इस बात के लिए जश्न नहीं मनाया जाना चाहिए कि डीपी यादव, अफजाल अंसारी, रिजवान जहीर, अन्ना शुक्ला, अशोक चंदेल और अतीक अहमद जैसे कथित माननीय भी इस बार संसद की शोभा बढ़ाने से वंचित कर दिए गए हैं।
लेकिन चिंता करने की भी कई वजहे हैं। सबसे बडी चिंता पिछली सरकार की तरह इस सरकार में भी उत्तर प्रदेश को प्रतिनिधित्व से वंचित न होना पड़ जाए। पिछली बार राज्य की लगभग तीन चौथाई सीटों का प्रतिनिधित्व रखने वाली सपा और बसपा की बारी-बारी मदद से मनमोहन सिंह की सरकार पूरे पांच साल चल तो गई लेकिन उत्तर प्रदेश को सरकार में भागीदारी का सुख नहीं मिल पाया। इस बार जनादेश कांग्रेस के पक्ष में भले ही हुआ हो लेकिन उत्तर प्रदेश की तीन चौथाई जनता का प्रतिनिधित्व अभी भी उसकी पिछली सहयोगी पार्टियों के पास ही है। ऐसे में आने वाला राजनीतिक घटनाक्रम जैसा भी हो उत्तर प्रदेश को सत्ता में भागीदारी तो मिलनी ही चाहिए।
खैर जिस जय हो के नारे के कांग्रेस ने चुनाव अभियान की शुरूआत की थी, अब उसे वोटर की जय बोलनी चाहिए और जय बोलनी चाहिए लोकतंत्र की क्योंकि अंत में जन ने अपना जनादेश दे दिया है.


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जनादेश-2009 के स्पष्ट संकेत

सबसे पहला यह कि जनादेश-2009 मनमोहन सिंह और उनकी यूपीए सरकार पर जनता के विश्वास की ओर संकेत करता है। जनता यह स्वीकार नहीं कर सकी कि विश्वव्यापी आथिर्क मंदी से निपटने, परमाणु करार के देश हित में होने के बावजूद विपक्षियों ने चुनाव जीतने के लिए कांग्रेस/यूपीए की सार्वजनिक आलोचना की गयी। और, सरकार को अक्षम साबित करने की कोशिश की जबकि जनता अपनी आंखों से देखती रही कि सरकार इन सभी मुद्दों से निपटने के लिए किस प्रकार कोशिश करती रही।
मतदाता के मन में मंदी से मुकाबले की बात जरुर थी और इसके लिए वह स्थायी सरकार चाहती थी। ऐसे समय में मतदाता जांची परखी सरकार भी चाहता था जो वह कांग्रेस को ही समझता है। आमआदमी को मनमोहन सहज, भले और ईमानदार पीएम लगते हैं.
जनता ने आक्रामक और अनर्गल प्रचार पसंद नहीं किया। यही कारण है कि चुनाव प्रचार के दौरान बेहद आक्रामक रुख अख्तियार करने वाली भारतीय जनता पार्टी और उसके गठबंधन को कितना नुकसान उठाना पडा। सीधे-साधे पीएम मनमोहन सिंह को बार-बार कमजोर बताने की भाजपा की रणनीति ने उनकी लुटिया डुबो दी। मनमोहन और यूपीए सरकार पर एनडीए के कडे प्रहार जनता की सोच से मेल नहीं खा सके।
यूपी के पीलीभीत में भडकाउ भाषण देकर अचानक की भाजपा के स्टार प्रचारक बन बैठे वरुण गांधी का सम्प्रदाय विशेष के प्रति अविश्वसनीय रुप से कडी टिप्पणी का नुकसान भी भाजपा को हुआ। इसको लेकर पार्टी में ही चुनाव परिणाम के बाद विद्रोह के स्वर उठने लगे हैं। मुख्तार अब्बास नकवी व शाहनवाज हुसैन ने साफ तौर पर कहा है कि यूपी और अन्य प्रदेशों में वरुण की वजह से मुस्लिम वोट खिसक गये।
चुनाव के दौरान एनडीए का लालक़ष्ण आडवाणी को पीएम के रुप में प्रोजेक्ट करना भी हार का कारण रहा। दरअसल अटल बिहारी वाजपेयी के दौरान भी आडवाणी भाजपा के प्रमुख नेता के रुप में सामने आये लेकिन वाजपेयी की उदार छवि के चलते भाजपा अपने चरम पर रही। लेकिन जब 15वीं लोकसभा चुनाव में आडवाणी एनडीए के मुखौटे के रुप में सामने आये तो जनता ने आक्रामकता से तौबा कर ली। यह वही आडवाणी हैं जो गांधी नगर में चुनाव जीतने के लिए मोहम्मद अली जिन्ना की आदमकद तस्वीर के साथ मुस्लिम एरिया में प्रचार करते नजर आये। जीतने के लिए इस घटिया तरीके को वर्ग विशेष के साथ आम जनता को भी सोचने पर मजबूर कर दिया।
चुनाव से पहले और चुनाव के दौरान राहुल गांधी युवाओं की आस्था के केंद्र के रुप में नजर आये। मतदाताओं ने उन्हें भावी पीएम के रुप में देखा और भविष्य में युवा वर्ग के लिए कुछ करने का जज्बा भी, लेकिन इन चुनाव परिणाम से यह नहीं कहा जा सकता कि यूपीए के पक्ष में लहर रही। इसे विकल्पहीनता के रुप में भी देखा जा सकता है। और, भाजपा कांग्रेस के विकल्प के रुप में मजबूती से सामने नहीं आ सकी।
जहां तक उत्तर और दक्षिण में अलग रुझान की बात है तो यूपी में चतुष्कोणीय मुकाबला था और लोगों ने भ्रम में पडने की बजाय गांधी परिवार पर भरोसा किया। राहुल, प्रियंका और सोनिया गांधी में उन्हें नयापन दिखा।
इस चुनाव में मतदाता ने क्षेत्रीय दलों के दंभ और अकड को नकार दिया। जनता ने उन्हें ब्लैकमेलिंग करते हुए पूरे साढे चार साल देखा और ऐन चुनाव के समय यूपीए से अलग होना उन्हें पसंद नहीं आया। वैसे इस चुनाव से क्षेत्रीय दलों के लोस चुनावों में पराभव के दौर के रुप में भी देखा जा सकता है।
वामदलों की अपने गढ पश्चिम बंगाल और केरल में शमर्नाक शिकस्त भी कुछ यही कहानी कहती नजर आये। परमाणु करार मुद्दे पर पूरे देश ने उनकी नौटंकी देखी थी। इसके अलावा भूमि अधिग्रहण के मामले में भी उनकी तानाशाही पश्चिम बंगाल की जनता ने देखी और उनके रवैये को सिरे से नकार दिया।
और अंत में,
जनता ने एक बार फिर एकदल पर विश्वास जताने का संकेत दिया है। इसका तात्पर्य है कि भाजपा को अब भी चेत जाना चाहिए और नकारात्मक प्रचारों, अनर्गल टिप्पणियों से बचना चाहिए ताकि वह कांग्रेस के समानांतर खडा हो सके। एक मजबूत विपक्ष के होने से सत्ता पक्ष के तानाशाह होने का खतरा नहीं रहता.


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राष्ट्रीय राजनीति के हाशिए पर वाम दल

पिछले पांच वर्ष से केंद्र की राजनीति में छाए रहे वाम दल पश्चिम बंगाल का किला टूटने के साथ ही अचानक नाटकीय रूप से राष्ट्रीय राजनीति के हाशिए पर पहुंच गए हैं। पश्चिम बंगाल और केरल में वाम दलों का पत्ता साफ हुआ है और कांग्रेस के नेतृत्व वाले गठजोड़ ने उन्हें करारी शिकस्त दी है। तीसरे मोर्चे के गठन के साथ ही केंद्र में गैर कांग्रेस सरकार बनाने का सपना देख रहे वाम की किरकिरी हो गई। पिछले लोकसभा चुनाव के मुकाबले इस बार वाम मोर्चा को आधी ही सीटें मिलने की उम्मीद है। केरल में माकपा नीत वाम मोर्चा को 2004 में 20 में से 19 सीटें मिली थीं, लेकिन इस बार केवल चार सीटों पर ही पकड़ बनी है। विश्लेषक माकपा नेताओं केरल के मुख्यमंत्री वीएस अच्युतानंदन व सचिव पिनाराई विजयन के बीच हुए विवाद को हार की वजह बता रहे हैं। प. बंगाल में ममता की तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस के गठबंधन ने वाम दलों की सीटों की संख्या अब तक के सबसे निचले स्तर पर पहुंचा दी है। वाम दलों ने भारत अमेरिकी परमाणु करार के मुद्दे पर संप्रग सरकार से समर्थन वापस ले लिया था। वाम दलों ने गैर कांग्रेस और गैर भाजपा वैकल्पिक सरकार बनाने के इरादे से तीसरा मोर्चा बनाया। माकपा भाकपा फारवर्ड ब्लाक आरएसपी के अलावा तीसरे मोर्चे में मायावती की बसपा एच डी देवगौड़ा की जद एस एन चंद्रबाबू नायडू की तेदेपा और अन्नाद्रमुक की जे जयललिता शामिल हुइं। मोर्चे में शामिल टीआरएस पिछले सप्ताह की राजग में शामिल हो गया था। बीजद के भाजपा से संबंध तोड़ने के बाद वाम मोर्चा काफी उत्साहित था। वाम दलों के नेताओं ने चुनाव बाद के परिदृश्य में स्पष्ट कर दिया है कि वे कांग्रेस नीत सरकार का समर्थन करने की बजाय विपक्ष में बैठना पसंद करेंगे।


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Friday, May 15, 2009

.... कि बंद आंखों से वे दुनिया को देखते हैं

हमारे पडोसी देश पाकिस्तान की हालत पर अब कुछ तरस सा आने लगा है. बंद आंखों से दुनिया को देखने वाले इस देश को और देशों की शांति और सुशासन शायद रास नहीं आती है और कभी तालिबानियों तो कभी आतंकियों के माध्यम से इसे साबित भी करता रहा है. उसके खुद के घर में आग लगी हुई है और पूरा देश उस आग में जो कि खुद उसी के द्वारा लगाई गयी है, झुलस रहा है. आम लोगों का जीना मुहाल हो गया है और स्वात घाटी से पलायन ही सारी कहानी बयां कर जा रही है. रोज अखबारों में वहां की शांति और सुशासन की कलई खुल रही है लेकिन उसे इससे इत्तेफाक कहां?
हाल ही में आईसीसी ने पाकिस्तान से विश्वकप क्रिकेट की मेजबानी छीन ली तो वहां के हुक्मरानों को जैसे आग लगी और खुद पीसीबी आक्रामक हो उठा. वे पूरी दुनिया को यह जतलाने की कोशिश करने में जुटे हुए हैं कि अगर पाकिस्तान के हालात ऐसे नहीं हैं कि वहां क्रिकेट का महाकुंभ नहीं लग सकता तो भारत, श्रीलंका और बांग्लादेश के हालात भी इसकी गवाही नहीं देते. आईसीसी के पूर्व अध्यक्ष पाकिस्तान के अहसान मनी तो इसके लिए सीधे ही भारत को दोषी ठहरा रहे हैं. वैसे दूसरे “अहसानों” की पाक में कमी नहीं है. विश्वकप की मेजबानी के लिए अपने घर में माहौल न होने के बावजूद पीसीबी का सही जगह होने का दावा करना हास्यास्पद ही है और रवैया काफी कुछ अपनी सरकारों जैसा ही. भारत में कत्लेआम मचाने के लिए आतंकवादियों को शह देने वाला पाक और उसकी सेना, गुप्तचर एजेंसी आईएसआई पूरी दुनिया को यह बताने से नहीं चूकते कि वे खुद ही आतंकवाद ग्रसित देशों में हैं. दरअसल ऐसा कर वह अमेरिका से मिलने वाली सहायता राशि गंवाना नहीं चाहता और अपनी राजनीतिक रोटियों को जलते हुए नहीं देखना चाहता. पाकिस्तान का राजनीतिक आधार कुछ ऐसा है कि सत्ता पर काबिज होने के लिए अपने बडे भाई भारत का विरोधी तो होना ही होगा. संवदनाओं को जेहाद के माध्यम से भडकाकर वे जिस पाकिस्तान की कल्पना करना चाह रहे हैं क्या वह तरक्कीपसंद नुमाइंदों की पहचान कही जा सकती है?
जिस देश ने सदियों पुराने शरीयत को स्वात घाटी (अघोषित रुप से तो कई अन्य जगहे भीं) में मान्यता देकर तालिबानियों के चश्में से दुनिया को देखने और दिखाने की कोशिश की हो उसे तरक्की पसंद देश की संज्ञा कैसे दी जा सकती है। खुद अपना दामन बचाने के लिए वहां के राजनीतिज्ञों ने जिस तालिबान का सहारा लिया क्या उससे यह आशा की जा सकती है कि अमेरिकी दबाव में वह तालिबानियों पर आक्रमण कर उसे नेस्तनाबूद करने की इक सही कोशिश भी करेगा। जब मुंबई में कुछ महीनों पूर्व हुए आतंकी हमले में सैकडों बेगुनाहों का खून पानी की तरह बहा दिया गया था और जब इस दुस्साहसिक हमले में पाकिस्तान का साफ हाथ नजर आया तो पहले इनकार और फिर हमले में पकडे गये एकमात्र आतंकी अजमल कसाब के खुद यह बयान देने कि वह पाकिस्तान का नागरिक है, पाक हुक्मरान सकते में आ गये थे। कसाब के खुलासे के बाद कि मुंबई के समुद्री तटों तक पहुंचने में पाक सेना ने भी मदद की थी, लीपापोती करने में जुट गया था पाक। यहां तक कि उसे माता-पिता को डराया धमकाया गया, लश्कर-ए-तइबा के जिस आतंकी अब्दुल रहमान लखवी को कसाब ने अपना आका बताया, दुनिया को दिखाने के लिए उसे घर में ही नजरबंद किया गया, जहां से वह लापता हो गया। यह खबर पाक मीडिया ने ही दी। क्या इससे पाक का यह दोगलापन सामने नहीं आया कि मुंबई हमलों में पाक का हाथ नहीं है और फिर लखवी को कैद करने की भी जरुरत आन पडी। लापरवाही तो खैर पाकिस्तान का चेहरा ही है। शायद वह यह नहीं सोच रहा कि इस आग में एक दिन पाकिस्तान के अस्तित्व पर भी संकट उठ खडा होगा। वैसे यह बात पाकिस्तान के एक उपन्यासकार और राजनीति की गहरी समझ रखने वाले व्यक्ति ने भी हिंदुस्तान के एक शीर्ष दैनिक में एक लेख के माध्यम से उजागर किया है.
खैर, बात क्रिकेट की,
पीसीबी की ओर से यह बयान लगातार जारी हो रहे हैं कि भारत, श्रीलंका और बांग्लादेश में स्थिति विश्वकप कराने जैसी नहीं है. वहां के माहौल खेल आयोजित कराने जैसे नहीं हैं. चलो हम मान भी लें कि पीसीबी सही कह रहा है तो फिर उसने जुलाई के बाद श्रीलंका में अपनी क्रिकेट टीम भेजने के लिए वह राजी कैसे हो गया. क्या यहां पर उसका दोमुहापन उजागर नहीं होता. दरअसल पाक नहीं चाहता कि भारत को विश्वकप आयोजन का श्रेय मिले. हालात का मुद्दा तो दुनिया को असल हकीकत से दूर ले जाने का प्रयास है. वैसे पाकिस्तान जरा यह तो बताये कि श्रीलंकाई क्रिकेट टीम पर हमला कहां पर हुआ, भारत में, बांग्लादेश में या श्रीलंका में?
खैर पाकिस्तान क्या सोच रहा है इससे हमें कोई फर्क नहीं पडना चाहिए लेकिन उसकी सोच की शुरुआत और अंत भारत से ही होता है तो जरुर सोचने वाली बात है। पाक से इतर भारत की बात करें यहां के राजनीतिज्ञों में इस बात की प्रतिबद्धता नजर नहीं आती कि आतंकवादियों के खिलाफ सही कार्रवाई भी होनी चाहिए. उनके लिए तो यह मुद्दा केवल वोट खींचने तक ही सीमित है.

वैसे तरस तो हमें खुद पर भी आने लगा है,
आखिर हमारी सोच भी तालिबान जैसी क्यों नहीं है---
हम तालिबान को जी भरकर कोसते हैं क्योंकि वे लड़कियों के स्कूल जलाते हैं, हम उन्हें नामर्द कहते हैं। वे कोड़े बरसाते हैं तो हम उन्हें ज़ालिम कहते हैं। वे टीचर्स को भी पर्दों में रखते हैं , हम उन्हें जंगली कहते हैं।
हमारी सोच तालिबानी क्यों नहीं-
- क्योंकि हम हमारी संस्कृति और इज़्ज़त की रक्षा के लिए कुछ भी कर गुजरने को तैयार रहते हैं।
- क्योंकि हम यह सुनते ही उबल उठते हैं कि जाट की लड़की दलित के लड़के के साथ भाग गई। उन्हें ढूंढते हैं , पेड़ों से बांधते हैं और जला डालते हैं ... ताकि संस्कृति बची रहे।
- क्योंकि इस काम में लड़की का परिवार पूरी मदद करता है , क्योंकि उसके लिए इज़्ज़त बेटी से बड़ी नहीं।
- क्योंकि हम उस समय भन्ना उठते हैं , जब लड़कियों को छोटे - छोटे कपड़ों में पब और डिस्को जाते देखते हैं। फौरन एक वीरों की सेना बनाते हैं। सेना के वीर लड़कियों की जमकर पिटाई करते हैं और उनके कपड़े फाड़ डालते हैं।
- क्योंकि जिन्हें संस्कृति की परवाह नहीं , उनकी इज़्ज़त को तार - तार किया ही जाना चाहिए। उसके बाद हम ईश्वर की जय बोलकर सबको अपनी वीरता की कहानियां सुनाते हैं।
- क्योंकि जो रेप के लिए लड़की को ही कुसूरवार ठहराते हैं क्योंकि उसने तंग और भड़काऊ कपड़े पहने हुए थे।
- क्योंकि हम अपनी गर्लफ्रेंड्स का mms बनाने और उसे सबको दिखाने में गौरव का अनुभव करते हैं और हर mms का पूरा लुत्फ लेते हैं।
- क्योंकि यह सब करने के बाद हम बड़ी शान से टीवी के सामने बैठकर तालिबान की हरकतों को ' घिनौना न्याय ' बताकर कोसते हैं और अपनी संस्कृति को दुनिया में सबसे महान मानकर खुश होते हैं।


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