Monday, June 22, 2009

शायद मेरी समझ जरा कमजोर है...

1) 21 जून को भारतीय बैडमिंटन खिलाड़ी सायना नेहवाल ने इंडोनेशियाई ओपन सुपर सीरीज बैडमिंटन टूर्नामेंट जीतकर इतिहास रचा। किसी भी सुपर सीरीज बैडमिंटन टूर्नामेंट में खिताब जीतने वाली पहली भारतीय बनीं।
2) 21 जून को ही पाकिस्तान ने श्रीलंका को हराकर ट्वेंटी-20 वर्ल्डकप का खिताब जीता और,
3) 21 जून को ही इंग्लैंड ने न्यूजीलैंड को हराकर ट्वेंटी-20 महिला वर्ल्डकप का खिताब अपने नाम किया।
दरअसल मेरी कोशिश यह ध्यान दिलाने की नहीं है कि 21 जून को खेल की कौन-कौन सी गतिविधियां रहीं, मेरी कोशिश तो कुछ और ही पहलू पर ध्यान दिलाने की है। रविवार को यह सभी खबरें किसी भी अन्य खबरों से अधिक महत्वपूर्ण रहीं और जैसी की उम्मीद थी सभी अखबारों ने इन खबरों को अपने पहले पन्ने पर जगह दी। खेल प्रेमी होने के बावजूद सोमवार को अखबारों में छपी इन खबरों को देखकर दिल बाग-बाग हो गया हो, ऐसा नहीं है। सभी अखबारों ने अपनी नीतियों और महत्व के हिसाब से ही इन खबरों को स्थान दिया होगा, ऐसा मेरा सोचना है। मैं गलत भी हो सकता हूं लेकिन भोपाल में होने के कारण भोपाल के अखबारों में छपी इन खबरों पर नजर डालें तो मन कुछ उदास सा हो गया।
यहां के कुछ अखबारों ने इन खबरों का जिस तरह से प्रस्तुतीकरण किया उससे मेरा खेलप्रेमी ह्रदय कुछ निराश सा हो गया। चूंकि सभी अखबार अपने देश के ही हैं और उसके पाठकों में भी लगभग सभी हिंदुस्तानी ही हैं ऐसे में खबर वह महत्वपूर्ण थी जिसमें भारतीय संदर्भ और उपलब्धि छिपी हुई थी। जी हां, यहां बात सायना नेहवाल की हो रही है। सायना की उपलब्धि किसी भी मायने में अन्य दो खबरों से कम नहीं थीं, बल्कि अधिक ही थीं। ऐसे में एक लीडिंग अखबार का पहले पन्ने पर पाक के चैंपियन बनने की खबर को अधिक कवरेज देना और सायना के सयाने प्रदर्शन को बेहद कम जगह देना सालने वाला रहा।
कहीं इसलिए तो नहीं कि सायना का यह प्रदर्शन क्रिकेट नहीं बैडमिंटन के लिए आया और व्यावसायिक नजरिए से बैडमिंटन क्रिकेट से कहीं अधिक पीछे है?
यही नहीं उक्त अखबार ने खेल पन्ने पर भी सायना को अन्य खबरों से कम स्पेस देकर खेल प्रेमियों को निराश ही किया। आखिर जिस उपलब्धि को प्रकाश पादुकोण और पी गोपीचंद के ऑल इंग्लैंड बैडमिंटन टूनार्मेंट की खिताबी जीत के बराबर माना जा रहा हो और जैसा किसी अन्य भारतीय ने पहले नहीं किया रहा हो, उसकी फोटो वर्ल्डकप लिए पाकिस्तान के शाहिद अफरीदी, यूनिस खान, शोएब मलिक से कम महत्वपूर्ण कैसे हो सकती है? मुझे समझ नहीं आया, संभवत: मेरी समझ जरा कमजोर है। एक अन्य अखबार ने भी ऐसा ही किया और बेहद निराशाजनक तरीके से, जिसमें सायना की खबर ढूंढने पर मिली और पाक जीत की खबर एकदम सामने ही नजर आई।अपनी इस निराशा के बीच एक अन्य अखबार ने पहले पन्ने का जो ले-आउट दिया, उसकी चर्चा न करुं तो शायद ज्यादती होगी. उक्त अखबार ने सायना की जो फोटो प्रकाशित की है उसमें वह तिरंगा लहरा रहीं हैं। एक खेलप्रेमी को वह फोटो बेहद आकर्षक लगी और उसको दिया गया उचित स्थान भी. इस अखबार ने भी पाक जीत की और इंग्लैंड की जीत की फोटो पहले पन्ने पर ही दी और बकायदा पैकेज बनाकर लेकिन उसमें गंभीरता दिखी। उसने सायना की तिरंगे वाली फोटो के बैकग्राउंड के रुप में पाक के चैंपियन बनने की खबर और इंग्लिश महिलाओं की जीत की खबर लगाई। इस फोटो से मेरे खेल मन को कुछ ऐसा संदेश मिला कि "सबसे आगे होंगे हिंदुस्तानी"
मुझे ऐसा लगता है कि जिस खिताब को जीतकर सायना ने देश को गौरवान्वित किया हो, वह खबर अन्य खबरों से छोटी कैसे हो सकती है. और यही वजह है कि विभिन्न अखबारों में प्रकाशित इन खबरों को देखकर जब मन विचलित हुआ तो अपने दिल की बात लिख दी. हालांकि लिखते समय मुझे बराबर यह लगता रहा कि मेरी समझ शायद कमजोर है, फिर भी लिखता गया...


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Sunday, June 21, 2009

सायना का "सयाना' प्रदर्शन


  • इंडोनेशिया ओपन सुपर सीरीज बैडमिंटन खिताब जीता
  • सुपर सीरीज जीतने वाली पहली भारतीय बनीं

क्रिकेटिया चकाचौंध से इतर जब किसी अन्य खेलों में भारतीय उपलब्धि की कोई खबर आती है तो वह हवा के ठंडे झोंके के समान होती है और दिन को सुकूं का अहसास करा जाती है. बीजिंग ओलंपिक में मुक्केबाज विजेंदर कुमार और पहलवान सतीश कुमार का कांस्य पदक जीतना ऐसे ही एक झोंके के समान आया था और खेल प्रशंसकों को पहली बार क्रिकेट से अलग दूसरे खेलों के बारे में उपलब्धियों का बखान करते भी सुना. अब एक बार फिर ऐसी ही खबर आई है जब सीना गर्व से चौड़ा हो गया है. बीजिंग ओलंपिक की बैडमिंटन स्पर्धा में अपने प्रदर्शन से दुनिया को चकाचौंध करने वाली भारतीय शटलर सायना नेहवाल ने सुपर सीरीज बैडमिंटन टूर्नामेंट इंडोनेशियाई ओपन पर खिताब जमा लिया है.
वैसे तो सायना का सुपर सीरीज का यह पहला खिताब है लेकिन इतिहास रचते हुए आया. आज तक किसी भी भारतीय ने कभी सुपर सीरीज खिताब पर कब्जा नहीं जमाया था लेकिन सायना ने यह कर दिखाया. सायना का यह सयाना प्रदर्शन उस समय आया जब देश के खेल प्रशंसक माफ कीजिएगा, क्रिकेट प्रशंसक निराशा और हताशा के शिकार थे. दरअसल क्रिकेट से उम्मीद लगाये इन दर्शकों को उम्मीद थी कि भारतीय टीम ट्वेंटी-20 वर्ल्ड का खिताब बरकरार रखने में सफल रहेगी लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ और इस टूर्नामेंट के सुपर आठ चरण से टीम इंडिया बेआबरु होकर बाहर निकली. इस चरण में वह एक भी मुकाबला जीत नहीं सकी और लीग चरण में बांग्लादेश और हालैंड की टीम को ही हरा सकी. इस बेहद कमजोर प्रदर्शन ने प्रशंसकों को पूरी तरह से निराश कर दिया था लेकिन आज रविवार का दिन देश के लिए न सिर्फ उपलब्धियां लेकर आया बल्कि इन प्रशंसकों को एक ठंडी हवा का झोंका भी दे गया. सायना की इस उपलब्धि को ऑल इंग्लैंड चैंपियन प्रकाश पादुकोण तथा सायना के मौजूदा कोच पुलेला गोपीचंद की उपलब्धि के समकक्ष आंका जा सकता है. सायना की यह उपलब्धि भारतीय खेल के इतिहास में मील का पत्थर है और इसे स्वीकार करते हुए भारतीय बैडमिंटन संघ ने सायना को दो लाख रुपये का पुरस्कार देने की घोषणा की है.
एक और बात,
सायना नेहवाल अपने पिता और वैज्ञानिक डॉ. हरवीर सिंह के काफी क्लोज्ड हैं और उनकी यह उपलब्धि खास दिन पर आई. आज फादर्स डे है और इससे बेहतर तोहफा किसी पिता के लिए और क्या हो सकता है. सायना की उपलब्धि से गौरवांन्वित महसूस कर रहे उनके पिता हरवीर ने इसे देश के लिए विशेष क्षण करार दिया और कहा कि उन्हें अपनी बेटी पर गर्व है. हरवीर जी आप ही को क्यों, पूरे देश को सायना की इस उपलब्धि पर गर्व है.


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Monday, June 15, 2009

"समरसता" कैसी और कैसी "शर्म"

(सुधीर कुमार)
उत्तर प्रदेश में एक दलित नेता हैं जो कि खुद को "दलितों का मसीहा" कहती हैं और प्रदेश की सत्ता के सिंहासन पर विराजमान हैं। जी हां, बात बहन बहन मायावती की ही हो रही है. स्वर्गीय कांशीराम ने दलितों को समाज की मुख्यधारा से जोडने जिस बहुजन समाज पार्टी (बसपा) का गठन किया, उसके वर्तमान कार्यरुप को देखकर तो कांशीराम की आत्मा क्या महसूस करती होगी यह तो वही जानें, लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि मायावती ने उनकी नीतियों पर पलीता लगाने का काम ही किया है. खैर बात बीएसपी की मायावी नीतियों की नहीं बल्कि "समरसता दिवस" और "शर्म दिवस" की.
दरअसल 19 जून को कांग्रेस महासचिव और देश के युवा नेता राहुल गांधी का जन्मदिवस है. कांग्रेसी जहां इसे समरसता दिवस के रुप में मना रहे हैं वहीं मायावती और उनकी बसपा ने इसी तारीख से शर्म करो अभियान शुरु करने का ऐलान किया है. दरअसल बसपा सुप्रीमो मायावती को लगता है कि "समरसता दिवस" से प्रदेश में भाईचारा टूटेगा और जातिवाद को बढ़ावा मिलेगा इसलिए ऐसे दलों (स्पष्ट रुप से कांग्रेस की ओर है माया का इशारा) को शर्म करो-शर्म करो कहकर हतोत्साहित किया जाएगा। इसके लिए मायावती ने 19 जून को देशव्यापी जागरूकता अभियान चलाने का फैसला किया। अब शर्म किस बात की यह तो माया ही जानें लेकिन इससे समरसता शब्द स्वयं को लघु और विभाजक समझने लगा है. माया की शर्मिंदगी अगर समरसता दिवस को लेकर है तो शर्म किसको आना चाहिए, इसका जवाब माया से मांगा जाना चाहिए. मायावती तो कहती हैं कि कांग्रेस और बीजेपी के नेता दलित वर्ग का हितैषी बनने का ढोंग कर रहे हैं। चलिए माया ही सही, तो फिर वह बताएं कि यूपी की सत्ता पर काबिज होने के अलावा दलित वर्ग से उनका क्या हित रहा और वह उस वर्ग के प्रति कितनी हितैषी रहीं? कितने दलितों का उद्धार उन्होंने किया और कितने दलितों ने खुद को मजबूत महसूस किया. आज भी यूपी के जिलों में दलितों पर अत्याचार की कहानी आम है, बांदा, झांसी, हमीरपुर से लेकर पूर्वांचल के गांवों तक नजर फेर डालिए. कहां पर दलित समाज की मुख्य धारा से जुडा हुआ नजर आया.
और, मायावती को समरसता दिवस मनाने पर शर्म आती है तो यह शर्म उनको तब क्यों नहीं आई जब यूपी को समाजवादी पार्टी समेत अन्य दलों के क्रिमिनल बैकग्राउंड वाले नेताओं को सत्ता से बाहर करने के लिए विधानसभा चुनावों के दौरान चलाये गये अभियान कि " चढ़ गुंडन की छाती पर, मुहर लगाओ हाथी पर" की सफलता के बाद "वे सभी गुंडे" एक-एक कर बसपा में नजर आते गये. उनको तो शर्म तब भी नहीं आई जब जनता ने यह कहना शुरु कर दिया कि "चढ़ गये गुंडन छाती पर, मुहर लगाकर हाथी पर।"
मायावती को शर्म तब भी नहीं आती जब वह सड़को से अपना काफिला गुजरने से पूर्व सडकों को हजारो लीटर पानी से धुलवाती हैं. कई जगह से तो यह भी सुनने को मिला कि सड़कें धुलवाने के लिए मिनरल वॉटर तक का प्रयोग किया गया. यानि जिस जनता ने उन्हें गद्दी पर बैठाया, उससे उन्हें इन्फेक्शन का खतरा था.
यही नहीं, हर बार मुख्यमंत्री बनने के बाद मायावती का गुमान कुछ इस कदर कुलाचें मारता रहा कि वरिष्ठ आईएएस अधिकारियों को मीटिंग के दौरान अपनी कुर्सी से नीचे ही बैठने पर मजबूर किया. यह नीचे बैठना दरी या केवल फर्श पर बैठना ही रहा. उनका खौफ ऐसा रहा कि आईएएस अधिकारी भी हाथ जोडे नजर आये. मायावती को तब शर्म नहीं आई और अब आ रही है, शर्म भी किससे, समरसता से, मानो इस पर केवल उन्हीं का अधिकार है. अगर यही बात है तो मायावती में कब दिखी/दिखेगी समरसता.
* गांधी को भी नहीं बख्शा
कांग्रेस और राहुल गांधी के खिलाफ 19 जून से अपने शर्म करो अभियान की शुरुआत के लिए मायावती की पार्टी ने जो पर्चे जारी किए हैं, उस पर माया को शर्म नहीं आती. इन पर्चों में मायावती ने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को नाटकबाज घोषित कर दिया। मायावती शायद यह भूल गयी हैं कि यह गांधी ही थे, मायावती नहीं- जिन्होंने ऊंच-नीच को खत्म करने के लिए खुद अपने हाथ में झाड़ू उठाकर शौचालय तक साफ किए थे। और, जिस युग में गांधी ने यह काम किया था उस युग में ऐसा सोच पाना भी आम हिन्दुस्तानी के लिए संभव नहीं था। मायावती जिस भीमराव अंबेडकर की बात करती हैं, कुछेक अपवादों को छोड़कर वह गांधीवाद के बड़े समर्थक माने जाते रहे हैं. ऐसे में मायावती की आलोचना क्या अंबेडकर की आलोचना भी नहीं है.
वैसे तो गांधी जी से मायावती का वैर पुराना है। लेकिन इस बार की टीस कुछ और ही है। जिस दलित वोट बैंक के सहारे मायावती जाति की राजनीति करती रही हैं, लोक सभा चुनाव के नतीजों ने यह साफ कर दिया है कि उस वोट बैंक का रूझान फिर से कांग्रेस की ओर बढ़ने लगा है। अपने हाथों से इस वोट बैंक के खिसक जाने की आशंका से मायावती हतप्रभ सी रह गई हैं। और यही उन्हें गांधी के गिरेबान को छूने की हिमायत करने को मजबूर कर रही है। गांधी पर कीचड़ उछालने वाली मायावती शायद यह भूल गयी हैं कि सीबीआई और सुप्रीम कोर्ट में जो भी मामले उन पर चल रहे हैं वे समाज सेवा के नहीं ही हैं।
- अब बात राहुल गांधी की
बसपा के शर्म दिवस के मूल में राहुल गांधी का दलित लोगों के घर में जाकर खाना खाना या रात बिताना है। हो सकता है यह राहुल गांधी का नाटक हो जिसे वह लंबे समय से बिना रुकावट के कर रहे हैं लेकिन केक वाले कल्चर को छोड़कर दलित के घर खाना खाने का नाटक करने की हिम्मत राहुल गांधी के पास है तो सही। क्या मायावती ने कभी ऐसा किया है. शायद वह ऐसा सोच भी नहीं सकतीं. आज मायावती सबसे अधिक वैभवशाली हैं, उन्हें जन्मदिन में करोड़ों के तोहफे मिलते हैं जो उन दलित वर्ग से एकत्रित किए गये हैं, जिसकी वह मसीहा कहलाना पसंद करती हैं. यह रकम इन वर्गों के कई हफ्तों तक पेट पालने के लिए पर्याप्त होती, क्या इस रकम का उपयोग कभी दलित वर्ग के लिए हुआ।
ऐसा लगता है कि मायावती ने अपना विवेक खो दिया है. माया के पास सब कुछ हो सकता है लेकिन पैसों से विवेक नहीं खरीदा जा सकता। वह दलित की बेटी को प्रधानमंत्री नहीं बनने दिया का आरोप लगाकर अपने वोट बैंक को भावुक कर सकती हैं लेकिन वास्तविकताओं से मुंह मोड़ना इस दलित की बेटी को गर्त की ओर ही ले जायेगा. मायावती को अब अपने पत्थरों की मूर्ति से अधिक चिंता उसकी करनी चाहिए जिसने उन्हें ऐसा करने की ताकत दी है. और, राहुल गांधी का जन्मदिवस अगर समरसता दिवस के रुप में मनाने की घोषणा हुई है तो यह उनकी (वोटर) जीत है जिसने राहुल को इसका मौका दिया है. मायावती शर्म दिवस मनाने से ज्यादा उनकी चिंता करतीं तो शायद हकीकत को ज्यादा नजदीक से समझ सकतीं.


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Sunday, June 14, 2009

भारत सेमीफाइनल में पहुंच सकता है बशर्ते...

इसका जवाब हां में तो है मगर... । वास्तव में पहले टी-20 वर्ल्डकप क्रिकेट की चैंपियन टीम के लिए इंग्लैंड में चल रहे 2009 टी-20 वर्ल्डकप में हालात बिल्कुल वैसे ही हो चुके हैं जैसा कि 2007 में कैरेबियाई द्वीप समूह में संपन्न हुए वर्ल्ड कप में थे। फिलहाल टीम इंडिया को अगर 2009 के वर्ल्ड कप सेमीफाइनल में पहुंचना है तो उसे अब सुपर आठ के अपने दोनों मैच जो कि इंग्लैंड और दक्षिण अफ्रीका से होने हैं, हर हाल में जीतने होंगे। आज भारत का मुकाबला इंग्लैंड की टीम से होगा और मंगलवार को दक्षिण अफ्रीका से। चूंकि भारत ने वेस्टइंडीज के हाथों सुपर आठ का अपना पहला मैच गंवा दिया था, इसलिए टीम इंडिया अगर इन दोनों मैचों को जीतती है तभी उसके लिए सेमीफाइनल के दरवाजे खुल सकते हैं।
लेकिन यह जरुरी भी नहीं है कि इन दोनों मैचों को जीतने के बाद टीम इंडिया सेमीफाइनल में पहुंचे ही।
मान लीजिए अगर टीम इंडिया ने इंग्लैंड और दक्षिण अफ्रीका-दोनों को हरा दिया और वेस्टइंडीज ने इंग्लैंड को पटकनी दे दी तो ऐसी सूरत में भारत, दक्षिण अफ्रीका और वेस्टइंडीज, तीनों के खाते में दो-दो जीत होंगी। ऐसे में ग्रुप 'ई' से सेमीफाइनल में जाने वाली टीम का फैसला रन रेट के आधार पर होगा। वेस्टइंडीज से मैच हारकर वर्तमान टी-20 चैंपियन ने खुद को मुश्किल में डाल दिया है। ऐसे में अब भारत को आखिरी चार में जाने के लिए अपने बाकी बचे दोनों मैच तो जीतने ही होंगे, साथ ही ग्रुप 'ई' में दूसरी टीमों के मैचों पर भी भारत की किस्मत निर्भर करेगी। अपने दोनों मैच जीतने के अलावा टीम इंडिया को वेस्टइंडीज के इंग्लैंड से हारने की दुआ करनी होगी क्योंकि अगर ऐसा हुआ तो वेस्टइंडीज और इंग्लैंड एक-एक जीत के साथ वर्ल्डकप से बाहर हो जायेंगी।


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Saturday, June 13, 2009

यूपीए और हिंदी से उसका इत्तेफाक

सुधीर कुमार
आप् चाहे तो ट्रैफिक नियम तोड दीजिए और पकडे जाने पर थानेदार के सामने धाराप्रवाह अंग्रेजी बोल दीजिए। अब भले ही वह प्राइमरी कक्षा में पढा कुत्ते/बिल्ली पर निबन्ध ही क्यों न हो, यकीन मानिए। पुलिसिया रौब आपसे डर जाएगा और आपको छोड देगा। वास्तव में आज भी हमारे देश में इस बात को मानने वाले लोगों की कमी नहीं जो समझदार उसे ही मानते हैं जो अंग्रेजी जानता है। और, देश की सरकार भी संभवत: अंग्रेजी से ही दिल का इत्तेफाक जोडती है, अगर नहीं तो भी कम से कम हिंदी से तो शायद नहीं ही जोडती. अगर ऐसा होता तो क्या यूपीए सरकार के नुमाइंदो (मंत्री ) में हिंदी भाषियों या हिंदी भाषी क्षेत्र की यूं उपेक्षा नहीं होती. देश में उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश , बिहार, झारखंड, उत्तरांचल, छत्तीसगढ प्रमुख हिंदीभाषी प्रदेश हैं. लेकिन इस बार इनकी उपेक्षा हावी है. हाल फिलहाल तक मंत्रिमंडल को लेकर मची खींचतान के बीच इन प्रदेशों को मिले मंत्रियों की संख्या पर एक नजर डालते हैं :-
* यूपीए सरकार के पिछले दौर में मंत्रिमंडल पर छाए बिहार से फिलहाल न तो कोई कैबिनेट मंत्री है, न कोई राज्यमंत्री। कुल प्रतिनिधित्व शून्य। हालत यह हुई कि इस बार बिहार में जब ट्रेनें जलाने का कई दिन लंबा सिलसिला शुरू हुआ तो लगा ही नहीं कि केंद्र सरकार की इस सबसे बड़ी संपदा की चिंता करने वाला इस राज्य में कोई है।
* उत्तर प्रदेश से कैबिनेट मंत्री एक भी नहीं, राज्यमंत्री पांच। इनमें से भी दो के पास स्वतंत्र प्रभार। दो ऐसे हैं जो पहली बार ही संसद पहुंचे हैं।
* झारखंड और उत्तरांचल से एक-एक राज्यमंत्री, छत्तीसगढ़ का मंत्रिमंडल में प्रतिनिधित्व शून्य।
* मध्य प्रदेश से दो कैबिनेट मंत्री और एक राज्यमंत्री, जबकि राजस्थान से इसका उलटा, यानी एक कैबिनेट मंत्री और दो राज्यमंत्री।
* हिंदीभाषी कहलाने वाले तीन अपेक्षाकृत छोटे राज्यों हरियाणा, हिमाचल प्रदेश और दिल्ली का केंद्रीय मंत्रिमंडल में प्रतिनिधित्व ठीकठाक ही कहा जा सकता है,
* बीमारु राज्यों की अनदेखी : कभी बीमारू नाम से तिरस्कृत- बाकी सात राज्यों उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान, झारखंड, छत्तीसगढ़ और उत्तरांचल का केंद्र सरकार से रिश्ता नाम का ही जान पड़ता है। ये राज्य पूरे हिंदी क्षेत्र का कहीं बड़ा हिस्सा निर्मित करने वाले हैं. पिछली यूपीए सरकार में इन राज्यों से चार या पांच हाई-प्रफाइल कैबिनेट मंत्रियों समेत कुल 24 मंत्री हुआ करते थे, जबकि इस बार मात्र 15 मंत्री सरकार की शोभा बढ़ा रहे हैं जिनमें 3 कैबिनेट मंत्री, 2 स्वतंत्र प्रभार वाले राज्यमंत्री और बाकी 8 राज्यमंत्री हैं। इनमें भी हाई प्रफाइल सिर्फ कमलनाथ और खींचतान कर सी.पी. जोशी को माना जा सकता है।
* अब जरा अन्य राज्यों से आये मंत्रियों की संख्या पर नजर डालें तो होश ही उड जाते हैं. अकेले तमिलनाडु से 10, महाराष्ट्र से 9, पश्चिम बंगाल से 8 और केरल से 6 मंत्री।
* यानी लोकसभा में 149 सांसद भेजने वाले इन चार राज्यों से कुल 33 मंत्री और 209 सांसद भेजने वाले उन सात राज्यों से मात्र 15 मंत्री!
ऐसा नहीं है कि बीमारु राज्यों में यूपीए का प्रदर्शन खराब रहा हो. पिछली बार की तुलना में इन सातों राज्यों में यूपीए का चुनाव कुछ बेहतर ही गया है। 2004 में इस गठबंधन को यहां से कुल 59 सीटें मिली थीं, जो इस बार बढ़ कर 65 हो गई हैं। फिर सरकार में इन क्षेत्रों की हैसियत इस कदर कम हो जाने की वजह भला क्या हो सकती है? कहीं यह तो नहीं कि पिछली बार इन इलाकों में यूपीए का अर्थ कांग्रेस, आरजेडी और एलजेपी का गठबंधन हुआ करता था जबकि इस बार यह सिर्फ और सिर्फ कांग्रेस है? अगर ऐसा है तो फिर कांग्रेस के लिए यह और खतरनाक संदेश हो सकता है. इस हिंदीभाषी क्षेत्र की जनता ने कांग्रेस में अपना विश्वास जताया है तो कांग्रेस को भी इन राज्यों पर ध्यान देना चाहिए था. आने वाले समय में यह अनदेशी यूपीए खासकर इस देश में लंबे समय से सरकार चलाने की अनुभवी पार्टी कांग्रेस को भारी पड सकती है. या फिर कांग्रेस आज भी पूर्व की तरह इन बीमारू राज्यों की क्षेत्रीय आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए यहां नेहरू परिवार की उपस्थिति को ही पर्याप्त मानती है,
कहीं ऐसा तो नहीं है कि पार्टी और कई लोगों का राजनीतिक कद सिर्फ इसलिए नहीं बढ़ने देती कि आगे चलकर वे कहीं पार्टी पर परिवार के वर्चस्व को चुनौती न देने लगें?
अब फिर बात अंग्रेजी की. अंग्रेजी की खासियत यही है कि वह दुनिया भर की भाषाओं से छांट-छांट कर शब्द चुनती है और अपने भण्डार में शामिल कर लेती है। यानि कि वह विरोध का बिगुल या छल प्रपंच की राजनीति से परे है लेकिन शायद कांग्रेस या यूपीए नहीं. शब्दों का निर्माण किसने किया किसने बनाए हैं ये शब्द यह तो हमें पता नहीं, पर अंग्रेजी भाषा जिस तरह दुनिया भर के शब्द अपने खजाने में शामिल कर रही है उससे तो यही लगता है कि शब्दों को ढूंढने के लिए अच्छे गोताखोरों और शिकारियों की जरू रत होती है। उधर हिन्दी के क्या हाल होते जा रहे हैं। यह तो भला हो इस देश के करोडों लोगों का, जिन्होंने अपने दम पर हिन्दी को जिला रखा है, वरना हमारे हुक्मरानों और अफसरों ने तो हिन्दी को सौतन की बेटी बनाने में कसर नहीं रखी थी। आज भी यह कहने वालों की कमी नहीं कि अंग्रेजी ही इस देश का भला करेगी। कांग्रेसनीत यूपीए ने भी शायद इसी नीति पर चलने में विश्वास कर रही है. विदेशियों की तो यह मजबूरी है कि न चाहते हुए भी उन्हें भारत की आज तरफ देखना पड रहा है. और, भारत को बगैर हिन्दी के स्वीकार ही नहीं किया जा सकता। यही कारण है कि पूरी दुनिया में हाल के नस्लवादी हमलों के बावजूद भारतीयों की मेधा की पहचान पर किसी भी प्रकार का संकट नहीं आया है.
जबकि फिरंगियों/विदेशियों यहां तक कि नस्लवादी हमलों वाले देशों में भी भारतीय पहचान हिंदी के महत्व को समझ लिया गया है, हमारे भारतीय हुक्मरानों को कब यह सलीका आयेगा कि वे राष्ट्रभाषा हिन्दी और उस क्षेत्र को महत्व दें. काश किसी भी सरकार ने ऐसा कभी सोचा होता तो हम बीमारु राज्यों हमारे का रोना न रोकर आज आंध्रप्रदेश, गुजरात जैसे अहिंदीभाषी क्षेत्रों जैसी तरक्की से दो-चार होते.


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Wednesday, June 10, 2009

फिर भी कलावती गरीब ही रहेगी

आप कलावती को तो जानते ही होंगे? नहीं... तो राहुल गांधी को तो जरुर जानते होंगे. देखा आपके चेहरा खिल गया ना. मैं जानता था कि आप राहुल गांधी को जरुर जानते होंगे। तभी तो आपके चेहरे की रौनक बढ गयी लेकिन जिस कलावती को आप नहीं जानते उसे राहुल गांधी जरुर जानते हैं। यह वही कलावती हैं जो समाज के बेहद निम्न तबके/दलित वर्ग से आती है और इसी कलावती के घर पर भोजन कर राहुल गांधी ने कांग्रेस के चेहरे की मुस्कान लाने की कोशिश की और उनका यह प्रयास सुफल रहा जब 15वीं लोकसभा के लिए हुए चुनाव में कांग्रेसनीत यूपीए ने बाजी मार ली थी. चुनाव के बाद कांग्रेसनीत यूपीए की ताकत और मुस्कान तो बढी लेकिन नहीं बदली तो कलावती की किस्मत और उसके चेहरे की समयपूर्व झुर्रियां. आज भी उसके चेहरे पर गहन अवसाद की छाया नजर आती है जिसको राजनीति का राहुल रुपी तेज भी नहीं बदल सका.
खैर, बात कलावती की तो बतो दें कि वह महाराष्ट्र के एक जिले की रहने वाली बेहद गरीब महिला है। वैसे तो वह बडी नाम बन चुकी है क्योंकि उसकी चर्चा संसद में दो बडे राजनेताओं द्वारा जो की गयी। अब तो वह जाना पहचाना नाम बन चुकी है सो आपको पता होना चाहिए था. जाना पहचाना नाम बन जाने के बावजूद कलावती की किस्मत ने करवट नहीं बदली. वह भी तब जब संसद में पिछले साल राहुल ने कलावती का जिक्र कर भारत की गरीबी को रेखांकित किया था. ऐसा लगा था मानों अबकी बार कलावती और उस जैसे तमाम लोगों की गरीबी बस दूर हुई समझो. यही नहीं महिला आरक्षण पर चर्चा के दौरान भी लालू प्रसाद यादव ने कलावती, भगवती की चर्चा कर डाली. लालू ने इस बिल पर बोलते हुए कहा कि इसमें ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए जिससे कलावती जैसी करीब महिलाएं भी संसद में आ सकें.
फिलहाल तो कलावती दिल्ली में हैं और गरीबों के लिए न्याय की उम्मीद कर रही हैं। दरअसल गरीबी भोलेपन के साथ ही नजर आती है। कलावती का भोलापन भी देखिए, उसका मानना है कि राहुल ने जो विश्वास दिलाया था वह एक दिन पूरा होगा, भले ही अब तक जो वादे उससे किए गये थे उस पर रत्ती भर भी अमल न हुआ हो। यह गरीबी इतनी भोली होती है कि आश्वासनों के सहारे सैकडों वर्ष् गरीबी में ही उम्मीदी के दीये के साथ के साथ् जिंदगी काट लेती है और इसे देश के नेता बखूबी समझते हैं.

वादे हैं वादों का क्या
राहुल ने कलावती को घर दिलाने का वादा तो कर दिया था लेकिन न तो उचित दिशानिर्देश दिये गये और न ही उसकी स्थिति में कोई सुधार ही हुआ है। कलावती यानि आम जनता जो सरकार चुनती है ताकि उसकी समस्याएं सुलझाईं जा सकें, का मामला यह साबित करता है कि एक बडे नेता द्वारा किया गया वादा एक साल बाद भी पूरा नहीं होता. इसके पीछे नौकरशाही रवैये को दोषी ठहराया जाता है जो हर बात को फाइल दर फाइल आगे बढाता है. वास्तव में अगर कहीं कमी है तो प्रतिबद़धता की और राजनीतिक/प्रशासिनक सुचिता की.
कर्ज में डूबी कलावती जैसी आम जनता जब अधिकारियों के पास जाकर अपनी समस्या बताती है तो अधिकारी भी ढेर सारे वादे करते हैं लेकिन ये वादे जैसे पूरे होने के लिए होते ही नहीं। उसे वादे के मुताबिक न तो घर मिलते हैं न ही गांव के लिए स्वास्थ्य केंद्र, और तो और गांव के बच्चों के लिए अंग्रेजी स्कूल तो आज भी एक बडा सपना है।
वास्तव में कलावती सिर्फ एक महिला नहीं बल्कि देश की जनता का प्रतिनिधित्व करती है। उस जनता की जिसको हर पांच साल बाद लोक लुभावन नये नारों और वादों की घुट्टी पिलाई जाती है, उसको अचानक ही चांद की सैर और उन ख्वाबों को पूरा करने का सब्जबाग दिखाया जाता है, जो वह सैकडो वर्षों से देखता आ रहा होता है। भई मानना पडेगा इस राजनीतिक वायदों की घुट्टी को जिसको पीने के बाद आम जन धैर्य से अगले पांच सालों का इंतजार करती है, अगली बार यह घुट्टी पीने का।


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Tuesday, June 9, 2009

शायद मैं भटक गया हूं...

क्या तालिबान केवल पाकिस्तान में हैं और हम इससे वंचित हैं? शायद नहीं क्योंकि तालिबान एक विचारधारा है। एक ऐसी विचारधारा जो आधुनिकता से कोसों दूर किसी अंधेरी कोठरी में दम घुटने तक के लिए छोड़ जाती है। एक ऐसा अंधा कुंआ जिसमें सारी हकीकतों का गला घोट दिया जाता है। तालिबान एक ऐसा हथियार है जिसकी धार को तेजकर अमन-ओ-चैन का सिर कलम कर दिया जाता है। दकियानूसी सोच और नामर्दी की हद तक मर्दानगी दिखाने को अगर तालिबान कहा जाय तो कुछ गलत नहीं होगा। यह एक ऐसी सोच है जो विकास को न सिर्फ दूर से सलाम करती है बल्कि उसे सोच में आने से पहले ही दूर छिटक देती है। तालिबान को यह पसंद नहीं कि आवाम में एका रहे, खुशहाली पसंद लोगों के बीच माहौल जिंदादिली जैसा हो। उन्हें तो बस इससे मतलब है कि किस तरह से सीलन भरे कमरे के दमघोंटू माहौल में खुद का श्रेष्ठ (?) सत्ता की तरह से बनाये रखा जाय। दरअसल, जुल्म ढाने और बराबरी के हक की बात करने वालों को पंगु करने का उपकरण है तालिबान।
अभी हाल में मध्यप्रदेश के एक जिले में घोड़ी चढ़े दूल्हे को केवल इसलिए कथित उच्च वर्ग के ठेकेदारों और नुमाइंदों ने मरणासन्न स्थिति तक पीटा क्योंकि दूल्हा उनके वर्ग का नहीं था और घोड़ी चढ़ने की हिमाकत कर बैठा। मानों यह उसका हक न हो, कि वह एक सामान्य या निम्न तबके है कि उसका विरोध करने वाले उच्च तबके के थे और उन्हें इस बात की पूरी छूट थी कि भारतीय संविधान के आदर्शो की चिंदी-चिंदी कर डालें। किस बात का समाजवाद और कैसी आजादी। सोच भी क्या तालिबान से रत्ती भर भी कम। आज भी, जबकि हम चांद पर अपना अक्स छोड़ने की अंतिम प्रक्रिया में हैं, हमारे गांवों में अनुसूचित जाति/जनजाति वर्ग की महिलाओं के, जब तब अपनी मर्दानगी साबित करने के लिए उच्चवर्ग द्वारा पूरे गांव के सामने कपड़े खींच लिए जाता हैं। ऐसा लगता है मानों कौरव और उनकी सभा आज भी बेरोकटोक जीवित है। कौरवों की भरी सभ में द्रौपदी का चीरहरण वाला प्रसंग 21वीं सदी में प्रवेश कर जाने के बाद भी वर्तमान है। कौरव-पांडव युग में लोगों ने द्रौपदी के चीरहरण को देखकर सिसकारियां भरी होंगी या अफसोस जताया होगा, मुझे नहीं मालूम, लेकिन अब इतना तो समझ ही गया हूं कि वर्तमान में जब भी कोई दुःशासन बनकर किसी द्रौपदी का चीरहरण करता है तो लोगों की सिसकारियां ही निकलती हैं। अफसोस या संवेदना जैसा कुछ तो विलुप्त प्राय हो चुका है।
क्या ऐसी घटनाएं इस बात की ओर संकेत नहीं करतीं कि आज भी तथाकथित उच्च वर्ग की सोच में जरा भी फर्क नहीं आया है। क्या, उनकी सोच उन तालिबानियों की सोच से जरा भी इतर है जो पाकिस्तान में लोकतंत्र की कब्र खोदने में जुटे हुए हैं और जब भी कभी ‘लोक’ उनको रोकने की कोशिश करता है, दमघोंटू सीलन भरी मर्दानगी से उनके घुटने तोड़ दिये जाते हैं। जैसे, तुम दबे कुचले ही अच्छे लगते हो। और, हमारे यहां भी निम्न वर्ग का दबा कुचला होना ही विकास का आधार माना जाता है। 15वीं लोकसभा के गठन के बाद महिला आरक्षण बिल पर शरद यादव का जहर खा लेने का शगूफा छेड़ना भी इसी तालिबानी सोच का नतीजा है। कहने को तो वे खुद को महिलाओं की उन्नति का पक्षधर कहते हैं लेकिन इसका विरोध करने में वे सबसे आगे भी नजर आये जिनकी लकीर सपा प्रमुख मुलायम ने भी पकड़ी। आखिर ‘सर्वोच्च सत्ता’ पर ‘घूंघटदारी सत्ता’ को वे कैसे बर्दाश्त करें। देखने वाली बात तो यह होगी कि जिस आधार पर शरद यादव जैसे लोग इस बिल का विरोध कर रहे हैं, इसके पास होने के बाद अपने उस आधार को खुद पर लागू करते हैं या नहीं। भविष्य में होने वाले चुनावों में शरद यादव का लिटमस टेस्ट होगा और टिकट बंटवारे पर भी सबकी नजर रहेगी कि महिला आरक्षण बिल में भी आरक्षण की मांग पर वे खुद कितना अमल करते हैं।
खैर, मैं शायद भटक रहा हूं। पता नहीं मुझे क्या कहना था और मैं क्या कहे जा रहा हूं। शायद मैं खुद इस देश का सबसे बड़ा नपुंसक हूं कि आम लोगों को दबाने वालों का विरोध तक नहीं कर सकता। मैंने खुद को इतना कमजोर महसूस किया कि उससे उबरने को कलम को अपना साथी बनाने की कोशिश की लेकिन... यह कलम भी कमजोर ही निकली. ऐसी कलम की बिसात ही क्या जिसकी स्याही उसी कथित उच्चवर्ग के रहमोंकरम से भरी जाती हो जिसके खिलाफ खड़े होने के लिए हमने कलम का सहारा लिया। .... चलिए बहुत हो चुका, मैं पहले ही भटका हुआ था, ज्यादा बोला तो और, भटक जाऊंगा...


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Monday, June 8, 2009

फेडरर के नाम 14वां ग्रैण्ड स्लैम


आखिरकार दुनिया के दूसरे नंबर के खिलाडी स्विट्जरलैण्ड के रोजर फेडरर का फ्रेंच ओपन जीतने का सपना सच हो ही गया। फेडरर ने फाइनल में स्वीडन के रोबिन सोडरलिंग को लगातार सेटों में 6-1, 7-6, 6-4 से हराकर पहली बार रोलां गैरो में अपनी पताका फहरा दी। इसी के साथ उन्होंने अमरीका के पीट सेम्प्रास के सर्वाधिक 14 ग्रैण्ड स्लैम खिताब जीतने के विश्व रिकार्ड की बराबरी कर ली।उन्हें इससे पहले लगातार तीन बार रोलां गैरो की लाल बजरी पर परंपरागत प्रतिद्वंद्वी और दुनिया के नंबर एक खिलाडी स्पेन के राफेल नडाल के हाथों शिकस्त झेलनी पडी थी।इस जीत के साथ फेडरर करियर ग्रैण्ड स्लेम जीतने वाले दुनिया के कुल छठे और ओपन एरा (1968 से) में ऎसा करने वाले वाले तीसरे खिलाडीबन गएहैं। वह इससे पहले तक विंबलडन (पांच बार), यूएस ओपन (पांच बार) और आस्ट्रेलियन ओपन (तीन बार) में 13 ग्रैण्ड स्लैम जीत चुके थे।

फेडरर से पहले करियर ग्रैण्ड स्लैम बनाने वाले खिलाडी
* फ्रेड पैरी (इंग्लैण्ड), डॉन बुडगे, आन्द्रे अगासी (अमरीका), रॉड लेवर, रॉय इमरसन (आस्ट्रेलिया)।
* इनमें पैरी, बुडगे और इमरसन ने यह उपलब्धि ओपन एरा (1968 से) से पहले हासिल की। वहीं आगासी ने इसके बाद ऎसा किया। लेवर ने ओपन एरा से पहले भी और इसके बाद भी में यह कारनामा किया।
* टेनिस के इतिहास को ओपन एरा और इसके बाद के समयकाल में बाटा जाता है। ओपन एरा से पहले पेशेवर खिलाडियों को प्रतिष्ठित टूर्नामेंटों में खेलने की इजाजत नहीं होती थी। 1968 से सभी बडे टूर्नामेंट के आयोजकों पेशेवरों को शामिल होने की इजाजत दी।
* करियर ग्रैण्ड स्लैम: जब कोई खिलाडी अपने करियर में कभी न कभी चारों ग्रैण्ड स्लैम टूर्नामेंट जीतने में सफल रहता है तो इसे करियर ग्रैण्ड स्लैम कहते हैं।
* एक ही वर्ष में चारों ग्रैण्ड स्लैम जीतने को कैलेंडर ग्रैण्ड स्लैम हासिल करना कहा जाता है।
* गोल्डन स्लैम: जब कोई खिलाडी एक साल में सभी ग्रैण्ड स्लैम जीतने के साथ-साथ अगर उस साल ग्रीष्मकालीन ओलम्पिक हुआ हो और उसमें भी स्वर्ण जीतता है तो इसे गोल्डन स्लैम कहा जाता है। कोई भी पुरूष खिलाडी अब तक ऎसा नहीं कर पाया। महिला वर्ग में स्टेफी ग्राफ ने 1988 में यह दुर्लभ उपलब्धि हासिल की थी।


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