"आपकि अंतरा" जी टीवी पर रात में साढ़े आठ बजे प्रसारित होने वाले इस सीरियल का पिछले काफी समय से मैं दर्शक हूं। या यूं कहें कि पहले ही एपिसोड से। बीच में कुछ एपिसोड छूटे भी मगर नहीं छूटा तो इस सीरियल से अपनापन। जब भी मौका मिला 30 मिनट इस सीरियल के नाम कर दिया। जाने क्यूं पहले ही दिन से "अंतरा" से स्नेह सा हो गया जो लगातार बढ़ता ही जा रहा है। शुरुआत में तो यही लगा कि अंतरा सामान्य बच्चों जैसी नहीं है। अंतरा जैसी है उसे हमारा समाज पागल की श्रेणी में रखता है और उस समाज में मैं भी बाहर नहीं था। मगर जैसे-जैसे सीरियल आगे बढ़ता गया, मैं अपनी समझ को लेकर असामान्य सा होता गया। क्या जो बच्चा/व्यक्ति खुद में खोया रहता है, अपने आप में तल्लीन रहता है, जिसे दुनियादारी से फर्क नहीं पड़ता, जिसे यह नहीं पता कि संवेदना क्या होती, चोट लगना क्या होता है, भूख या प्यास क्या होता है, उसे पागल कहकर इतिश्री कर लेना चाहिए। शायद नहीं, तभी तो इस धारावाहिक के माध्यम से हम और हमारे जैसे समाज के गाल पर करारा तमाचा जड़ा गया है।
इस धारावाहिक ने धीरे-धीरे ही सही मगर ऑटिस्म के प्रति जागरुकता लाने का प्रयास किया है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि इस कहानी का ताना-बाना कुछ इस तरह से बुना गया है कि यह कहीं भी कहानी से भटकता नहीं प्रतीत होता। केंद्रीय पात्र के रुप में अंतरा और उसके जैसे तमाम ऑटिस्टिक बच्चे हैं और उनकी दुनिया से परिचय तथा आम समाज उसके साथ कैसे सामान्य हो सकता है, को बेहद सतर्कता और संवेदनशीलता के साथ पेश किया गया है। इस धारावाहिक के प्रत्येक एपिसोड के अंत में एक ऑटिस्टिक बच्चे और उसकी फैमिली से जोड़ना बेहद सुकूं भरा होता है। यानि काल्पनिक चरित्र को यथार्थ के धरातल पर उतारने की कोशिश। ऐसे ही एक व्यक्ति से मिलवाया गया जो कि 26 साल की उम्र का था और उसे अपने परिवार से बहुत स्नेह मिला। परिवार के धैर्य पूर्वक स्नेह और डॉक्टर्स की निगरानी में वह व्यक्ति इतना सक्षम हो गया था कि कंप्यूटर का ज्ञान हासिल कर महीने में दो हजार रुपये तक की कमाई कर रहा था। यह बताते हुए उस व्यक्ति की मां की आंखों से आंसू का निकलना उनकी मेहनत के सफल होने का प्रमाण प्रस्तुत कर रहा था। लेकिन यह प्रमाण उससे कमाई करवाने का नहीं बल्कि समाज को यह दिखाने का कि एक असामान्य सा बच्चा/व्यक्ति भी अपने पैरों पर खड़ा कर सकता है।
अब बात ऑटिस्म की। यहां पर जो कुछ भी ऑटिस्म के बारे में लिख रहा हूं वह सब बेजी जैसन के ब्लॉग "स्पंदन" के सहारे लिख रहा हूं। उन्होंने "डॉक्टर की डेस्क" के माध्यम से इसके प्रति लोगों को जागरुक किया है। तमाम अवधारणाओं को स्पष्ट किया है जो हमने अपने मन में पूर्वाग्रह के रुप में बना रखा था। तो अब सब कुछ "स्पंदन" के सहारे
ऑटिस्म यानि आत्मानुचिंतन या स्वलीनता/आत्मकेंद्रित। ऑटिस्म यह एक ऐसी अवस्था है जो मस्तिष्क के सामर्थ्य को कम करती है। ऑटिस्म अभिव्यक्ति के गूंगेपन जैसी अवस्था है । व्यक्तित्व पर एक ऐसा ताला जिसकी चाभी गुम हो। एक व्यक्ति स्वयं अपने शरीर मे कैद। ऐसी बेबसी की कल्पना भी हमारे लिए मुश्किल है। इस रोग से जूझते बच्चे और उनका परिवार हमसे सिर्फ स्वीकृति चाहते हैं। यह अलग हैं..बुरे नहीं।
इससे ग्रसित व्यक्ति अपने आसपास की बात को आसानी से नहीं समझ पाता, उस पर प्रतिक्रिया देना तो दूर की बात है। इस वजह से उनका स्वभाव बाकियों से भिन्न होता है। कई बार उन्हे जरूरत और चाह के हिसाब से उपयुक्त शब्द नहीं मिलते तो वे सही शब्द की तलाश में एक ही शब्द या वाक्य दोहराते जाते हैं। इसके साथ ही वह लोगों की बात भी नहीं समझ पाता है। ऐसा नहीं कि वह शब्दों को साफ नहीं सुनते मगर वे उसका सही अर्थ समझने में असमर्थ होते हैं। ऐसे बच्चे के मन के भाव तेजी से बदलते हैं। जो बच्चा एक क्षण प्रसन्न दिखता है, अगले ही क्षण दुखी, खीजा हुआ, गुस्सैल भी हो सकता है। इसका कारण कोशिश करने पर भी अपनी बात व्यक्त न कर पाना हो सकता है। इन वजहों की लिस्ट बनाना नामुमकिन ना सही बहुत ही मुश्किल साबित होता है। यह अपने आप में इन बच्चों और इनका ध्यान रखने वाले और परवरिश करने वालों के लिए चुनौती साबित होता है। इससे उलझनें, भ्रांतियाँ,निराशा और कुण्ठा बढ़ती जाती है।
बहुत बच्चे एक ही पद्धति से कार्य करते हैं। इसमें ज़रा भी फेर करने पर स्वभाव बदल जाता है। कई गुस्सैल, परेशान, निराश हो जाते हैं नहीं तो डर जाते हैं। हर चीज़ अगर एक निर्धारित क्रम में चलता रहे तो वे संतुष्ट रहते हैं और अगर परिस्थिति का पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सके तो स्वयं को असुरक्षित पाते हैं। एक अवस्था से दूसरे तक जाने में भी उनका संतुलन खोता है। हकीकत इन्हे भ्रमित करती है। एक बात और चीज़ को दूसरे से जोड़ कर देखना इनके लिए बहुत मुश्किल होता है। ऑटिस्म को स्पेक्ट्रम डिसॉर्डर कहते हैं। हर बच्चे को यह अलग मात्रा में ग्रसित करती है । कुछ को कम, कुछ को ज्यादा। हर बच्चा अलग।
ऑटिस्टिक बच्चों में जो लक्षण आमतौर पर नजर आते हैं उनमें बोलचाल का कम होना, भाषा से अलग आवाज़ निकालना, देर से बोलना सीखना, एक ही शब्द,वाक्य बार बार बोलना, मैं और तुम जैसे सर्वनाम के प्रयोग में गलती करना, मेलमिलाप कम करना और नापसंद करना, आँख ना मिलाना, पूछी बात पर प्रतिक्रिया ना देना, चिड़चिड़ा रहना, हाथ हिलाते रहना,कूदना,गोल घूमना, बैलेंस बनाने की कोशिश करना,ऐड़ी पर चलना, कुछ आवाज़ों को सख्त नापसंद करना
कुछ कपड़ों, खाने की चीज़ों को नापसंद करना, बात दुहराना, खुद को नुकसान पहुँचाना। इनमें से कई बातें हो सकती है और कई नहीं भी। हर बात की तीव्रता भी अलग हो सकती है। हर बच्चा अलग होता है...और उसका सामर्थ्य भी।
हालांकि बेजी जैसन ने इस संबंध में कुछ गलत धारणायें भी बताई हैं जो इस प्रकार है
1. ऑटिस्म से ग्रसित बच्चे कभी आँख नहीं मिलाते। ऐसा नहीं है। और काफी बच्चे निरंतर प्रयास करने के बाद सीखते भी हैं।
2.ऐसा बच्चा जीनियस होता है। हर आई क्यू का बच्चा ऑटिस्टिक हो सकता है।
3.ऐसा बच्चा प्यार नहीं दिखाता, समझता। प्यार की अभिव्यक्ति इन बच्चों के लिए मुश्किल जरूर है...असँभव नहीं। लगातार कोशिश के बाद बच्चे प्यार जताना और दिखाना सीख जाते हैं।
4.बच्चे में सुधार का मतलब बच्चे को तकलीफ नहीं है। सुधार का मतलब प्रयास, स्नेह और साँत्वना है।
5.मुस्कुराते बच्चे का मतलब वह ऑटिस्टिक नहीं है। गलत। हर लक्षण की तीव्रता अलग हो सकती है। 6.समय के साथ ऑटिस्म पीछे छूट जाता है। नहीं।इसे उपचार और लगातार प्रयास की जरूरत है। जिसके बाद ऐसे बच्चे अर्थपूर्ण जीवन पा सकते हैं।
7.खराब परवरिश इसके लिए जिम्मेदार है।
कोई बच्चा ऑटिस्टिक है या नहीं यह जानने के लिए दो तरह के टेस्ट हैं
1- CHAT(Checklist for Autism in Toddlers test)
http://www.paains.org.uk/Autism/chat.htm
2- ATEC Test(Autism Treatment Evaluation Checklist )
http://www.autism.com/ari/atec/
कोई भी शंका के होने पर बाल रोग विशेषज्ञ नहीं तो चाइल्ड सायकोलोजिस्ट से मिलें। इस अवस्था के होने पर सही निदान और उपचार और लगातार प्रयास जरूरी है। अब तो ऑटिस्टिक बच्चों को जिंदगी के तौर-तरीके सिखाने के लिए भी क्लीनिक और कुछ साइंटिफिक तरीके ईजाद हो गये हैं। हालांकि ये 100 फीसदी कारगर तो नहीं हैं मगर समाज की मुख्य धारा से ऐसे बच्चों को जोड़ने में सहायक हो सकते हैं। लेकिन इसके लिए बहुत सारा धैर्य और सही दृष्टिकोण चाहिए। अगर ऐसा हो सके तो ऐसे बच्चे अर्थपूर्ण अस्तित्व पा सकते हैं। ऐसे बच्चे निर्धारित लक्ष्य पा सकते हैं और जीवन में कुछ बन सकते हैं।
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