आज अचानक ही सालों पहले एक महानगर के फुटपाथ पर उत्सुकता भरी निगाहों से देख रहे लोगों के हुजूम के बीच 'गोमती चक्र' पत्थर बेचने की कोशिश कर रहे साधु का वेश धरे उस फुटपथिया दुकानदार के मुंह से बार-बार निकल रही पंक्तियां याद आ गईं,
''हीरा पड़ा बाजार में लख आएं-लख जाएं,
मूरख-मूरख चल दिये ज्ञानी लाये उठाएं।"
इस पंक्ति में साफ कहा गया है कि हीरे की पहचान ज्ञानी को ही हो सकती है। हम रोज जाने कितनी ही चीजों को निरर्थक, अनुपयोगी, कबाड़ समझकर फेंक देते हैं मगर कचड़ा बीनने वाले बच्चे उसी में कुछ ऐसा तलाश लेते हैं जो उनकी पेट की आग शांत करने में मदद देती है। रद्दी-कबाड़ा खरीदने वाले के यहां सारी रद्दियां मसलन पेपर, बोतल, प्लास्टिक और लोहे के पुराने सामान, फटेहाल जूते-चप्पल सब कुछ बिक जाता है।
मतलब यह है कि भारत दुनिया के उन देशों में शुमार है जहां कुछ भी बेकार नहीं समझा जाता। यहां पर पुरानी से पुरानी चीज खरीदने वाले मिल ही जाएंगे। वैसे भी अब तो एक्सचेंज का जमाना आ चुका है। आप यह समझ रहे होंगे कि यह मैं क्या लिखे जा रहा हूं और किस संबंध में बात करना चाहता हूं। दरअसल, मैं यहां यह बताना चाहता हूं कि इस देश में कुछ भी अनुपयोगी नहीं माना जाता। घिसी-पिटी, मार खाई वस्तुओं तक का उपयोग कर लेने वाले लोग मौजूद हैं। अब देखिये ना, इसका ताजा उदाहरण समाजवादी पार्टी की टपकती लार को देखकर ही मिल गया। जसवंत सिंह को मोहम्मद अली जिन्ना को महिमा मंडित करने और नेहरु-पटेल को देश के बंटवारे का जिम्मेदार ठहराने पर भाजपा से धकिया कर बाहर कर दिया गया। पढ़े-लिखे विद्वान जसवंत सिंह का कोई कोई पुख्ता जनाधार हो सकता है, यह भाजपा समेत अन्य लोग भी बेहतर जानते हैं। अत: भाजपा को लगा कि जसवंत उनके लिए अनुपयोगी हो चुके हैं और इस अनुपयोगी प्राणी को बाहर कर अपना घर साफ कर लिया जाना चाहिए, जिसमें जिन्ना, महिमा मंडन के धब्बे लग गये हैं। मौका भी शुभ था, गणेशोत्सव के समय आखिर घर साफ भी तो होना चाहिए न।
अब जसवंत सिंह कहां राह तलाशते, अपनी पुस्तक में पंडित जवाहर लाल नेहरू पर अंगुली उठाकर उन्होंने कांग्रेसी खेमे में घुसने से पूर्व ही उनके लिए "नो इंट्री" का बोर्ड टंगा होगा, यह जसवंत पहले ही जानते हैं। लोग सोच रहे थे कि जसवंत सिंह का अब क्या होगा? क्या ऐसा भी कोई खूंटा है जहां बंधकर वह राजनीति में प्रभावी बने रह सकें। मगर यहां तो खूंटा खुद ही जसवंत सिंह के पास भागा हुआ आ रहा है। समाजवादी पार्टी के महासचिव अमर सिंह ने साइकिल से भागते-भागते जसवंत सिंह को अपने साथ आने का आफर दे दिया। सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव तक अमर सिंह के राजनीतिक फार्मूले के कायल हैं।
इन दोनों सपाइयों को भ्रम हो गया है कि जसवंत सिंह ने अपने जिन्नागान से मुसलमानों में अपनी अच्छी छवि बना ली है। जसवंत के सपा में आने पर मुस्लिम वोट बैंक पर सपा की पकड़ मजबूत होगी। ऐसी सोच का तो भगवान ही मालिक है। जिन्ना की वंदना से जसवंत पाकिस्तानियों में थोड़ी-बहुत लोकप्रियता पा सकते हैं लेकिन किसी भारतीय पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा? जसवंत सिंह को ऐसा खुला न्यौता देकर सपाइयों ने खुद को विनोद का विषय बना डाला है। जसवंत सिंह को पार्टी में आने का ऑफर देना यह प्रमाणित करता है कि इस राजनीतिक दल में देशव्यापी पहचान वाले चेहरों का घोर अभाव है। भाजपा से बाहर हुए कल्याण सिंह को लाल टोपी पहनाकर सपा नेतृत्व को अपने ही पुराने साथियों का असंतोष झेलना पड़ा। कुछेक लोकप्रिय फिल्मी हीरो-हीरोइनों के सहारे सपा की गाड़ी कितनी आगे बढ़ पाई है? कल्याण सिंह से दोस्ती की वजह दोनों पक्षों के अपने-अपने हित रहे हैं। कल्याण सिंह को चाहिए था ठौर और सपा को एक और मुखौटा। जसवंत सिंह पर डोरे डालने के पीछे वही भावना है। भाजपा ने अपने लिए अनुपयोगी जसवंत सिंह को भले बाहर कर दिया, परंतु सपा को उनमें फिर भी कुछ दिख रहा है। क्या इससे एक बार पुन: साबित नहीं हुआ कि हमारे यहाँ कुछ भी बेकार नही होता? चीज मिले भर लोग उसका उपयोग स्वयं तलाश लेते हैं।
और कुछ इतर,
आज ही मैंने एक लेख पढ़ा चेतन भगत का। उन्होंने लिखा है कि इस बात से क्या फर्क पड़ता है कि जिन्ना धर्मनिरपेक्ष थे या सांप्रदायिक? इससे हमारे जीवन पर क्या असर पड़ता है? जिन्ना को शांति से विश्राम करने दें। किताब जहां है उसे रहने दें। इतिहास जैसे विषय को लेकर बहुत ज्यादा चिंतित न हों। एक नया विषय निर्मित करें, जिसका नाम हो- "भविष्य"। क्या वास्तव में चेतन की बात सोचने पर मजबूर नहीं करती। गड़े मुर्दे उखाड़कर हम भारत के भविष्य की कौन सी दिशा तय कर सकते हैं। जिन्ना या उन जैसे तमाम मामले भारत के लिए आज किस तरह प्रासंगिक हैं। हमें तो भारत के लिए भविष्य के नेता चुनने हैं, इतिहास के शिक्षक नहीं। जसवंत सिंह या आडवाणी कुछ भी लिखें, इससे क्या फर्क पड़ता है।
Thursday, August 27, 2009
जसवंत-जसवंत पुकारती "साइकिल"
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सुधीर जी, आपके ब्लॉग को पढ़कर काफी अच्छा लगा। वास्तव में सभी राजनीतिक दल भविष्य की न सोचकर तात्कालिक लाभ के लिए ही अपनी रणनीतियां तय करते हैं। किसी भी दल के पास देश के लिए कोई नीति नहीं है। जसवंत का जिन्ना प्रेम एक अलग मसला है जिससे देश के युवाओं को कोई सरोकार नहीं है। वैसे चेतन भगत के जिस लेख का आपने जिक्र किया है उसे मैंने भी पढ़ा। मैं काफी समय से आपके ब्लाग को पढ़ता रहा हूं। अब मैंने खुद भी अपना ब्लाग बनाया है। जल्द ही उसमें अपने विचारों को प्रस्तुत करुंगा।
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