हमारे देश में हर साल करीब दो लाख लोगों की मौत जिगर (लीवर) फेल होने से होती है। इनमें से २० से ३० हजार लोग बचाये जा सकते हैं मगर इनको जिगर प्रत्यारोपण की आवश्यकता होती है। लेकिन जिगर प्रत्यारोपण के लिए "जिगर" कम ही लोग दिखाते हैं। भारत में जिगर प्रत्यारोपण के हर साल केवल तीन से चार सौ मामले आते हैं और यह बेहद निराशाजनक है। यह जागरुकता की कमी हो या कुछ और, मगर विज्ञान की तरक्की को जरुर मुंह चिढ़ाती नजर आती है। अभी पिछले दिनों दिल्ली के सर गंगाराम अस्पताल में दो मरीजों का एक साथ जिगर प्रत्यारोपण का आपरेशन हुआ और "जिगर" वालों के जिगर से दो जिंदगियां बचाई जा सकीं। दरअसल इस ऑपरेशन की खास बात यह रही कि इसने राष्ट्रों की सीमाओं को दरकिनार कर दिया और प्रेम की नई डगर पर चलने का साहस दिखाया।
इस ऑपरेशन के माध्यम से बचीं दो देशों की दो जिंदगियां। एक भारतीय तो दूसरी नाईजीरियाई। दोनों परिवारों के लोग एक दूसरे को जानते तक न थे मगर "जिगर" के चलते दोनों एक दूसरे से अंतहीन प्रेम के बंधन में बंध गये। इसमें भारतीय दानकर्ता ने जहां नाईजीरिया के १७ माह बच्चे को नई जिंदगी दी, वहीं नाईजीरियाई महिला ने अपना जिगर देकर भारतीय महिला की जान बचाई। तीन महीने पहले तक नाईजीरिया में रहनेवाला 18 महीने का डीके और मुम्बई की 44 वर्षीय प्रिया आहुजा एक ही समस्या से जूझ रहे थे। दोनों के लीवर ख़राब हो चुके था और दोनों को लीवर ट्रांसप्लाट की ज़रुरत थी लेकिन यहां सबसे बडी दिक्कत थी ब्लड ग्रुप के मैचिंग की। दरअलस डीके का ब्लड ग्रुप बी था और उसकी मां चिन्वे का ए, डीके के पिता का ब्लड ग्रुप बेटे से मिलता तो था लेकिन उनके लीवर का आकार बडा था। वहीं प्रिया का ब्लड ग्रुप ए था और उनके पति हरीश का बी। ये दोनो ही मामले सर गंगा राम अस्पताल के डाक्टरों के सामने आए और उन्होंने काफ़ी विचार-विमर्श करने के बाद एक नायाब तरीक़ा निकाला- स्वैप लीवर ट्रांसप्लांट यानि दानदाताओं की अदला बदली। डीके लिए दानदाता बने हरीश और प्रिया के लिए डीके की मां चिन्वे. ऐसी सर्जरी भारत में पहली बार हुई और शायद पुरी दुनिया में ये अपनी तरह का पहला मामला है.इस ऑपरेशन में चार ओटी हुई जबकि 35 डॉक्टरों ने मिलकर इस ऑपरेशन को सफल बनाया। 16 घंटे तक लगातार ऑपरेशन के दौरान डिके को हरीश ने अपना २० फीसदी जिगर दिया जबकि प्रिया को चिन्वे ने ५० फीसदी जिगर।
इस ऑपरेशन के लिए जहां डॉक्टर्स सराहना के हकदार हैं वहीं भारत और नाईजीरिया के इन दो परिवारों ने पूरी दुनिया को नई रोशनी दे दी। वैसे सुनने में तो यह बेहद आसान लगता है कि दोनों परिवारों की जरुरतों ने एक दूसरे की मदद के लिए प्रेरित किया लेकिन इसके लिए भी जज्बा होना चाहिए, जो दोनों परिवारों ने दिखाया। वास्तव में इस जज्बे की सराहना की जानी चाहिए ताकि अन्य लोग भी इसके लीवर प्रत्यारोपण/स्वैप लीवर प्रत्यारोपण के लिए आगे आ सकें। नेत्र दान/अंग दान के लिए सरकारी प्रयास और तमाम एनजीओ के दिन रात प्रयासों की सफलता कितनी प्रतिशत रही है, यह किसी से छिपा नहीं है। आज भी लोग ऐसे मामलों में बहुत पीछे नजर आते हैं। इसलिए डीके और प्रिया जैसे प्रयास को निश्चित ही उजागर किया जाना चाहिए क्योंकि इससे न सिर्फ जिंदगियां बचतीं हैं बल्कि प्रेम के एक नये युग का संचार होता है।
Friday, August 21, 2009
हो "जिगर" तो बनेगी प्रेम की डगर
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Anil Verma, Lucknow
ReplyDeleteAisi khabron ko zarur highlight ki jani chahiye
देर आये दरुस्त आये. कहा रहते हो जनाब. पता नहीं एक पोस्ट लिख कर आप कहा गायब हो जाते हो. अच्छा लिखा. बधाई के पात्र हो. मेरी गुफ्तगू में भी एक बार शामिल हों. www.gooftgu.blogspot.com
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