Thursday, August 27, 2009

जसवंत-जसवंत पुकारती "साइकिल"

आज अचानक ही सालों पहले एक महानगर के फुटपाथ पर उत्सुकता भरी निगाहों से देख रहे लोगों के हुजूम के बीच 'गोमती चक्र' पत्थर बेचने की कोशिश कर रहे साधु का वेश धरे उस फुटपथिया दुकानदार के मुंह से बार-बार निकल रही पंक्तियां याद आ गईं,
''हीरा पड़ा बाजार में लख आएं-लख जाएं,
मूरख-मूरख चल दिये ज्ञानी लाये उठाएं।"
इस पंक्ति में साफ कहा गया है कि हीरे की पहचान ज्ञानी को ही हो सकती है। हम रोज जाने कितनी ही चीजों को निरर्थक, अनुपयोगी, कबाड़ समझकर फेंक देते हैं मगर कचड़ा बीनने वाले बच्चे उसी में कुछ ऐसा तलाश लेते हैं जो उनकी पेट की आग शांत करने में मदद देती है। रद्दी-कबाड़ा खरीदने वाले के यहां सारी रद्दियां मसलन पेपर, बोतल, प्लास्टिक और लोहे के पुराने सामान, फटेहाल जूते-चप्पल सब कुछ बिक जाता है।

मतलब यह है कि भारत दुनिया के उन देशों में शुमार है जहां कुछ भी बेकार नहीं समझा जाता। यहां पर पुरानी से पुरानी चीज खरीदने वाले मिल ही जाएंगे। वैसे भी अब तो एक्सचेंज का जमाना आ चुका है। आप यह समझ रहे होंगे कि यह मैं क्या लिखे जा रहा हूं और किस संबंध में बात करना चाहता हूं। दरअसल, मैं यहां यह बताना चाहता हूं कि इस देश में कुछ भी अनुपयोगी नहीं माना जाता। घिसी-पिटी, मार खाई वस्तुओं तक का उपयोग कर लेने वाले लोग मौजूद हैं। अब देखिये ना, इसका ताजा उदाहरण समाजवादी पार्टी की टपकती लार को देखकर ही मिल गया। जसवंत सिंह को मोहम्मद अली जिन्ना को महिमा मंडित करने और नेहरु-पटेल को देश के बंटवारे का जिम्मेदार ठहराने पर भाजपा से धकिया कर बाहर कर दिया गया। पढ़े-लिखे विद्वान जसवंत सिंह का कोई कोई पुख्ता जनाधार हो सकता है, यह भाजपा समेत अन्य लोग भी बेहतर जानते हैं। अत: भाजपा को लगा कि जसवंत उनके लिए अनुपयोगी हो चुके हैं और इस अनुपयोगी प्राणी को बाहर कर अपना घर साफ कर लिया जाना चाहिए, जिसमें जिन्ना, महिमा मंडन के धब्बे लग गये हैं। मौका भी शुभ था, गणेशोत्सव के समय आखिर घर साफ भी तो होना चाहिए न।
अब जसवंत सिंह कहां राह तलाशते, अपनी पुस्तक में पंडित जवाहर लाल नेहरू पर अंगुली उठाकर उन्होंने कांग्रेसी खेमे में घुसने से पूर्व ही उनके लिए "नो इंट्री" का बोर्ड टंगा होगा, यह जसवंत पहले ही जानते हैं। लोग सोच रहे थे कि जसवंत सिंह का अब क्या होगा? क्या ऐसा भी कोई खूंटा है जहां बंधकर वह राजनीति में प्रभावी बने रह सकें। मगर यहां तो खूंटा खुद ही जसवंत सिंह के पास भागा हुआ आ रहा है। समाजवादी पार्टी के महासचिव अमर सिंह ने साइकिल से भागते-भागते जसवंत सिंह को अपने साथ आने का आफर दे दिया। सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव तक अमर सिंह के राजनीतिक फार्मूले के कायल हैं।
इन दोनों सपाइयों को भ्रम हो गया है कि जसवंत सिंह ने अपने जिन्नागान से मुसलमानों में अपनी अच्छी छवि बना ली है। जसवंत के सपा में आने पर मुस्लिम वोट बैंक पर सपा की पकड़ मजबूत होगी। ऐसी सोच का तो भगवान ही मालिक है। जिन्ना की वंदना से जसवंत पाकिस्तानियों में थोड़ी-बहुत लोकप्रियता पा सकते हैं लेकिन किसी भारतीय पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा? जसवंत सिंह को ऐसा खुला न्यौता देकर सपाइयों ने खुद को विनोद का विषय बना डाला है। जसवंत सिंह को पार्टी में आने का ऑफर देना यह प्रमाणित करता है कि इस राजनीतिक दल में देशव्यापी पहचान वाले चेहरों का घोर अभाव है। भाजपा से बाहर हुए कल्याण सिंह को लाल टोपी पहनाकर सपा नेतृत्व को अपने ही पुराने साथियों का असंतोष झेलना पड़ा। कुछेक लोकप्रिय फिल्मी हीरो-हीरोइनों के सहारे सपा की गाड़ी कितनी आगे बढ़ पाई है? कल्याण सिंह से दोस्ती की वजह दोनों पक्षों के अपने-अपने हित रहे हैं। कल्याण सिंह को चाहिए था ठौर और सपा को एक और मुखौटा। जसवंत सिंह पर डोरे डालने के पीछे वही भावना है। भाजपा ने अपने लिए अनुपयोगी जसवंत सिंह को भले बाहर कर दिया, परंतु सपा को उनमें फिर भी कुछ दिख रहा है। क्या इससे एक बार पुन: साबित नहीं हुआ कि हमारे यहाँ कुछ भी बेकार नही होता? चीज मिले भर लोग उसका उपयोग स्वयं तलाश लेते हैं।
और कुछ इतर,
आज ही मैंने एक लेख पढ़ा चेतन भगत का। उन्होंने लिखा है कि इस बात से क्या फर्क पड़ता है कि जिन्ना धर्मनिरपेक्ष थे या सांप्रदायिक? इससे हमारे जीवन पर क्या असर पड़ता है? जिन्ना को शांति से विश्राम करने दें। किताब जहां है उसे रहने दें। इतिहास जैसे विषय को लेकर बहुत ज्यादा चिंतित न हों। एक नया विषय निर्मित करें, जिसका नाम हो- "भविष्य"। क्या वास्तव में चेतन की बात सोचने पर मजबूर नहीं करती। गड़े मुर्दे उखाड़कर हम भारत के भविष्य की कौन सी दिशा तय कर सकते हैं। जिन्ना या उन जैसे तमाम मामले भारत के लिए आज किस तरह प्रासंगिक हैं। हमें तो भारत के लिए भविष्य के नेता चुनने हैं, इतिहास के शिक्षक नहीं। जसवंत सिंह या आडवाणी कुछ भी लिखें, इससे क्या फर्क पड़ता है।


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Saturday, August 22, 2009

चिंतन बैठक, कारण और जसवंत का जाना

शिमला में लोकसभा चुनावों में पार्टी की हार का मंथन करने के लिए भाजपा की चिंतन बैठक से पूर्व ही "धर्मनिरपेक्ष जिन्ना" के जिन्न के लपेटे में आ गये "जिन्ना, इंडिया-विभाजन-इंडिपेंडेंस" के लेखक और वरिष्ठ भाजपा नेता जसवंत सिंह। ताज्जुब की बात यह है कि भाजपा की हार के कारणों की जांच करने और आत्मचिंतन की मांग यशवंत सिन्हा और अरुण शौरी के साथ जसवंत सिंह बेहद जोर शोर से कर रहे थे और इस चिंतन बैठक में हार के जो फौरी कारण गिनाए गये-
- मनमोहन सिंह पर व्यक्तिगत टिप्पणी
- वरुण गांधी का भड़काऊ भाषण
-भावी पीएम के तौर पर नरेंद्र मोदी का नाम उछालना
- चुनावी कैम्पेन थीम का सही तरीके से पेश न होना
- नेतृत्व में एकता की कमी
- अपना अजेंडा पेश करने में नाकामी
- मुंबई अटैक पर कांग्रेस को घेर पाने में नाकामी
- बदले में कंधार मामले का चर्चा में आ जाना
- युवाओं से न जुड़ पाना
- गठजोड़ में कमजोरी, उड़ीसा में गठबंधन टूटना
- हरियाणा में पॉप्युलर मूड को न समझ पाना और पंजाब में सहयोगी के तौर-तरीके
में, कहीं भी जसवंत सिंह कारण नजर नहीं आये मगर जिन्ना को धर्मनिरपेक्ष बताकर संघ की नाराजगी से बचने के लिए भाजपा से बाहर कर दिए गये जसवंत। मगर पार्टी के हार के कारणों के जो कारण बताये गये, उसके जिम्मेदार लोग तो पार्टी में ही बने हुए हैं और लालकृष्ण आडवाणी पार्टी अध्यक्ष बने रहेंगे। इसका तात्पर्य है कि पार्टी भविष्य की ओर नहीं देख रही और अपने पुराने इतिहास पर ही कायम है। आखिर हार के कारणों में तो युवाओं को पार्टी से न जोड़ पाना भी तो रहा मगर भाजपा आडवाणी के अलावा किसी और को देखना नहीं चाहती। ऐसे में पार्टी के युवा नेताओं में असंतोष से इनकार नहीं किया जा सकता जो कि चुनाव पूर्व से जारी है।
अगर हार के कारणों पर जरा शिद्दत से नजर डालें तो हर कारण के "कारण" काफी हद तक आडवाणी ही नजर आते हैं, मसलन पीएम पर व्यक्तिगत टिप्पणी उन्होंने ही शुरु की, मुंबई हमले के जवाब में कंधार मामला उठने पर यह बयान देना कि तत्कालीन विदेश मंत्री जसवंत सिंह के कंधार जाने की उन्हें जानकारी नहीं थी, (जिससे यह संदेश गया कि गृहमंत्री और विदेश मंत्री में एका नहीं है)। वैसे एकमात्र कारण उन्हें ही नहीं माना जा सकता मगर पीएम इन वेटिंग को जिम्मेदारी ओढ़नी थी, जिसका वह साहस नहीं दिखा सके।
चिंतन बैठक के बाद आडवाणी का विपक्ष का नेता बने रहने पर मुहर लगने से यह स्पष्ट हो गया कि वह खुद हार की जिम्मेदारी लेने से बचना चाह रहे हैं या उनमें ऐसे साहस की कमी है। यानि हार के कारणों को बेहद हल्केपन में लेना जो कि पार्टी के भविष्य के संबंध में खतरनाक संकेत दे रही है। मगर यह सवाल हमेशा ही बना रहेगा जिन्ना को सेक्युलर बताकर लालकृष्ण आडवाणी बाद में पार्टी की ओर देश के पीएम इन वेटिंग बने मगर जसवंत सिंह को दरवाजा दिखा दिया गया। इस संबंध में हमारे एक साथी ने एक टिप्पणी की जिसके सही होने का दावा नहीं किया जा सकता मगर परिस्थितियों को देखते हुए इसकी चर्चा जरुर की जा सकती है।
चुनावों में शिकस्त के बाद मीडिया से लेकर पार्टी के कुछ नेताओं ने भाजपा की करारी हार के लिए आडवाणी को पीएम एन वेटिंग पेश करने के साथ कंधार मामले में उनके दिये गये बयान को जिम्मेदार मानना शुरु कर दिया था जबकि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर व्यक्तिगत टिप्पणी भी कारणों में हावी रही। ऐसे में आडवाणी खुद को कमजोर समझने लगे थे और वे हार के कारणों पर चिंतन बैठक की मांग करने वाले जसवंत सिंह को हासिए पर डालने की ताक में थे। जसवंत सिंह ने भी उन्हें जिन्ना को धर्मनिरपेक्ष और नेहरु तथा पटेल को बंटवारे के लिए जिम्मेदार ठहराकर दे दिया। इसके बाद मीडिया में जसवंत की आलोचना होने लगी और आडवाणी को मौका मिल गया। भाजपा ने चिंतन बैठक के पहले दिन मंथन शुरु होने से पूर्व ही उन्हें पार्टी से बाहर कर दिया।
खैर हमारे साथी की यह टिप्पणी कितनी वाजिब है, यह एक अलग मुद्दा है मगर परिस्थितियों को जोड़ने की उसकी कला का मैं कायल हो गया। खैर आडवाणी का बने रहना इसलिए भी जरुरी हो सकता है कि भाजपा के पास अभी भी कोई राष्ट्रीय चेहरा नहीं है जिसको सौंपकर आडवाणी अपनी राजनीतिक सक्रियता पर पूर्ण विराम लगा सकें। मगर जसवंत का जाने से भाजपा में ही असंतोष से इनकार नहीं किया जा सकता है।
जहां तक जसवंत सिंह की बात है तो जिन्ना पर किताब लिखने का प्रयास करना जसवंत सिंह एक बड़ी राजनीतिक चाल हो सकती थी। वह शायद उस मंजिल तक पहुंचना चाहते थे, जिस पर पहुंचने में आडवाणी असफल रहे। यह मकसद है, देश के मुसलमानों को अपने प्रति आकृष्ट करना। मगर इसमें वे असफल रहे और पार्टी से बाहर हो गये। लोकसभा चुनावों से पहले से बीजेपी में एक आंतरिक संघर्ष चल रहा है, जो चुनाव परिणाम के बाद और तीखा हुआ है।आडवाणी, राजनाथ सिंह, सुषमा स्वराज, मुरली मनोहर जोशी- ये सभी एक दूसरे के खिलाफ अखाड़े में खड़े हैं। इस स्थिति में ना तो कोई जसवंत सिंह से उनका मत पूछ रहा था, ना उन्हें कोई महत्व दिया जा रहा था। ऐसे में उनके सामने अपना वजूद साबित करने की जरुरत उन्होने समझी और इसके लिए जिन्ना का सहारा लिया। नतीजा जिन्ना के जिन्न ने उन्हें निगल लिया मगर भाजपा को अन्य किसी के जिन्न से बचने के लिए समझदारी और दूरदर्शिता दिखानी होगी।


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Friday, August 21, 2009

हो "जिगर" तो बनेगी प्रेम की डगर

हमारे देश में हर साल करीब दो लाख लोगों की मौत जिगर (लीवर) फेल होने से होती है। इनमें से २० से ३० हजार लोग बचाये जा सकते हैं मगर इनको जिगर प्रत्यारोपण की आवश्यकता होती है। लेकिन जिगर प्रत्यारोपण के लिए "जिगर" कम ही लोग दिखाते हैं। भारत में जिगर प्रत्यारोपण के हर साल केवल तीन से चार सौ मामले आते हैं और यह बेहद निराशाजनक है। यह जागरुकता की कमी हो या कुछ और, मगर विज्ञान की तरक्की को जरुर मुंह चिढ़ाती नजर आती है। अभी पिछले दिनों दिल्ली के सर गंगाराम अस्पताल में दो मरीजों का एक साथ जिगर प्रत्यारोपण का आपरेशन हुआ और "जिगर" वालों के जिगर से दो जिंदगियां बचाई जा सकीं। दरअसल इस ऑपरेशन की खास बात यह रही कि इसने राष्ट्रों की सीमाओं को दरकिनार कर दिया और प्रेम की नई डगर पर चलने का साहस दिखाया।


इस ऑपरेशन के माध्यम से बचीं दो देशों की दो जिंदगियां। एक भारतीय तो दूसरी नाईजीरियाई। दोनों परिवारों के लोग एक दूसरे को जानते तक न थे मगर "जिगर" के चलते दोनों एक दूसरे से अंतहीन प्रेम के बंधन में बंध गये। इसमें भारतीय दानकर्ता ने जहां नाईजीरिया के १७ माह बच्चे को नई जिंदगी दी, वहीं नाईजीरियाई महिला ने अपना जिगर देकर भारतीय महिला की जान बचाई। तीन महीने पहले तक नाईजीरिया में रहनेवाला 18 महीने का डीके और मुम्बई की 44 वर्षीय प्रिया आहुजा एक ही समस्या से जूझ रहे थे। दोनों के लीवर ख़राब हो चुके था और दोनों को लीवर ट्रांसप्लाट की ज़रुरत थी लेकिन यहां सबसे बडी दिक्कत थी ब्लड ग्रुप के मैचिंग की। दरअलस डीके का ब्लड ग्रुप बी था और उसकी मां चिन्वे का ए, डीके के पिता का ब्लड ग्रुप बेटे से मिलता तो था लेकिन उनके लीवर का आकार बडा था। वहीं प्रिया का ब्लड ग्रुप ए था और उनके पति हरीश का बी। ये दोनो ही मामले सर गंगा राम अस्पताल के डाक्टरों के सामने आए और उन्होंने काफ़ी विचार-विमर्श करने के बाद एक नायाब तरीक़ा निकाला- स्वैप लीवर ट्रांसप्लांट यानि दानदाताओं की अदला बदली। डीके लिए दानदाता बने हरीश और प्रिया के लिए डीके की मां चिन्वे. ऐसी सर्जरी भारत में पहली बार हुई और शायद पुरी दुनिया में ये अपनी तरह का पहला मामला है.इस ऑपरेशन में चार ओटी हुई जबकि 35 डॉक्टरों ने मिलकर इस ऑपरेशन को सफल बनाया। 16 घंटे तक लगातार ऑपरेशन के दौरान डिके को हरीश ने अपना २० फीसदी जिगर दिया जबकि प्रिया को चिन्वे ने ५० फीसदी जिगर।



इस ऑपरेशन के लिए जहां डॉक्टर्स सराहना के हकदार हैं वहीं भारत और नाईजीरिया के इन दो परिवारों ने पूरी दुनिया को नई रोशनी दे दी। वैसे सुनने में तो यह बेहद आसान लगता है कि दोनों परिवारों की जरुरतों ने एक दूसरे की मदद के लिए प्रेरित किया लेकिन इसके लिए भी जज्बा होना चाहिए, जो दोनों परिवारों ने दिखाया। वास्तव में इस जज्बे की सराहना की जानी चाहिए ताकि अन्य लोग भी इसके लीवर प्रत्यारोपण/स्वैप लीवर प्रत्यारोपण के लिए आगे आ सकें। नेत्र दान/अंग दान के लिए सरकारी प्रयास और तमाम एनजीओ के दिन रात प्रयासों की सफलता कितनी प्रतिशत रही है, यह किसी से छिपा नहीं है। आज भी लोग ऐसे मामलों में बहुत पीछे नजर आते हैं। इसलिए डीके और प्रिया जैसे प्रयास को निश्चित ही उजागर किया जाना चाहिए क्योंकि इससे न सिर्फ जिंदगियां बचतीं हैं बल्कि प्रेम के एक नये युग का संचार होता है।


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