Thursday, September 10, 2009

"आपकि अंतरा", ऑटिस्म के प्रति जागरुक करता सीरियल


शुरुआत में तो यही लगा कि अंतरा सामान्य बच्चों जैसी नहीं है। अंतरा जैसी है उसे हमारा समाज पागल की श्रेणी में रखता है और उस समाज में मैं भी बाहर नहीं था। मगर जैसे-जैसे सीरियल आगे बढ़ता गया, मैं अपनी समझ को लेकर असामान्य सा होता गया। क्या जो बच्चा/व्यक्ति खुद में खोया रहता है, अपने आप में तल्लीन रहता है, जिसे दुनियादारी से फर्क नहीं पड़ता, जिसे यह नहीं पता कि संवेदना क्या होती, चोट लगना क्या होता है, भूख या प्यास क्या होता है, उसे पागल कहकर इतिश्री कर लेना चाहिए।
"आपकि अंतरा" जी टीवी पर रात में साढ़े आठ बजे प्रसारित होने वाले इस सीरियल का पिछले काफी समय से मैं दर्शक हूं। या यूं कहें कि पहले ही एपिसोड से। बीच में कुछ एपिसोड छूटे भी मगर नहीं छूटा तो इस सीरियल से अपनापन। जब भी मौका मिला 30 मिनट इस सीरियल के नाम कर दिया। जाने क्यूं पहले ही दिन से "अंतरा" से स्नेह सा हो गया जो लगातार बढ़ता ही जा रहा है। शुरुआत में तो यही लगा कि अंतरा सामान्य बच्चों जैसी नहीं है। अंतरा जैसी है उसे हमारा समाज पागल की श्रेणी में रखता है और उस समाज में मैं भी बाहर नहीं था। मगर जैसे-जैसे सीरियल आगे बढ़ता गया, मैं अपनी समझ को लेकर असामान्य सा होता गया। क्या जो बच्चा/व्यक्ति खुद में खोया रहता है, अपने आप में तल्लीन रहता है, जिसे दुनियादारी से फर्क नहीं पड़ता, जिसे यह नहीं पता कि संवेदना क्या होती, चोट लगना क्या होता है, भूख या प्यास क्या होता है, उसे पागल कहकर इतिश्री कर लेना चाहिए। शायद नहीं, तभी तो इस धारावाहिक के माध्यम से हम और हमारे जैसे समाज के गाल पर करारा तमाचा जड़ा गया है।
इस धारावाहिक ने धीरे-धीरे ही सही मगर ऑटिस्म के प्रति जागरुकता लाने का प्रयास किया है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि इस कहानी का ताना-बाना कुछ इस तरह से बुना गया है कि यह कहीं भी कहानी से भटकता नहीं प्रतीत होता। केंद्रीय पात्र के रुप में अंतरा और उसके जैसे तमाम ऑटिस्टिक बच्चे हैं और उनकी दुनिया से परिचय तथा आम समाज उसके साथ कैसे सामान्य हो सकता है, को बेहद सतर्कता और संवेदनशीलता के साथ पेश किया गया है। इस धारावाहिक के प्रत्येक एपिसोड के अंत में एक ऑटिस्टिक बच्चे और उसकी फैमिली से जोड़ना बेहद सुकूं भरा होता है। यानि काल्पनिक चरित्र को यथार्थ के धरातल पर उतारने की कोशिश। ऐसे ही एक व्यक्ति से मिलवाया गया जो कि 26 साल की उम्र का था और उसे अपने परिवार से बहुत स्नेह मिला। परिवार के धैर्य पूर्वक स्नेह और डॉक्टर्स की निगरानी में वह व्यक्ति इतना सक्षम हो गया था कि कंप्यूटर का ज्ञान हासिल कर महीने में दो हजार रुपये तक की कमाई कर रहा था। यह बताते हुए उस व्यक्ति की मां की आंखों से आंसू का निकलना उनकी मेहनत के सफल होने का प्रमाण प्रस्तुत कर रहा था। लेकिन यह प्रमाण उससे कमाई करवाने का नहीं बल्कि समाज को यह दिखाने का कि एक असामान्य सा बच्चा/व्यक्ति भी अपने पैरों पर खड़ा कर सकता है।
अब बात ऑटिस्म की। यहां पर जो कुछ भी ऑटिस्म के बारे में लिख रहा हूं वह सब बेजी जैसन के ब्लॉग "स्पंदन" के सहारे लिख रहा हूं। उन्होंने "डॉक्टर की डेस्क" के माध्यम से इसके प्रति लोगों को जागरुक किया है। तमाम अवधारणाओं को स्पष्ट किया है जो हमने अपने मन में पूर्वाग्रह के रुप में बना रखा था। तो अब सब कुछ "स्पंदन" के सहारे
ऑटिस्म यानि आत्मानुचिंतन या स्वलीनता/आत्मकेंद्रित। ऑटिस्म यह एक ऐसी अवस्था है जो मस्तिष्क के सामर्थ्य को कम करती है। ऑटिस्म अभिव्यक्ति के गूंगेपन जैसी अवस्था है । व्यक्तित्व पर एक ऐसा ताला जिसकी चाभी गुम हो। एक व्यक्ति स्वयं अपने शरीर मे कैद। ऐसी बेबसी की कल्पना भी हमारे लिए मुश्किल है। इस रोग से जूझते बच्चे और उनका परिवार हमसे सिर्फ स्वीकृति चाहते हैं। यह अलग हैं..बुरे नहीं।
इससे ग्रसित व्यक्ति अपने आसपास की बात को आसानी से नहीं समझ पाता, उस पर प्रतिक्रिया देना तो दूर की बात है। इस वजह से उनका स्वभाव बाकियों से भिन्न होता है। कई बार उन्हे जरूरत और चाह के हिसाब से उपयुक्त शब्द नहीं मिलते तो वे सही शब्द की तलाश में एक ही शब्द या वाक्य दोहराते जाते हैं। इसके साथ ही वह लोगों की बात भी नहीं समझ पाता है। ऐसा नहीं कि वह शब्दों को साफ नहीं सुनते मगर वे उसका सही अर्थ समझने में असमर्थ होते हैं। ऐसे बच्चे के मन के भाव तेजी से बदलते हैं। जो बच्चा एक क्षण प्रसन्न दिखता है, अगले ही क्षण दुखी, खीजा हुआ, गुस्सैल भी हो सकता है। इसका कारण कोशिश करने पर भी अपनी बात व्यक्त न कर पाना हो सकता है। इन वजहों की लिस्ट बनाना नामुमकिन ना सही बहुत ही मुश्किल साबित होता है। यह अपने आप में इन बच्चों और इनका ध्यान रखने वाले और परवरिश करने वालों के लिए चुनौती साबित होता है। इससे उलझनें, भ्रांतियाँ,निराशा और कुण्ठा बढ़ती जाती है।
बहुत बच्चे एक ही पद्धति से कार्य करते हैं। इसमें ज़रा भी फेर करने पर स्वभाव बदल जाता है। कई गुस्सैल, परेशान, निराश हो जाते हैं नहीं तो डर जाते हैं। हर चीज़ अगर एक निर्धारित क्रम में चलता रहे तो वे संतुष्ट रहते हैं और अगर परिस्थिति का पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सके तो स्वयं को असुरक्षित पाते हैं। एक अवस्था से दूसरे तक जाने में भी उनका संतुलन खोता है। हकीकत इन्हे भ्रमित करती है। एक बात और चीज़ को दूसरे से जोड़ कर देखना इनके लिए बहुत मुश्किल होता है। ऑटिस्म को स्पेक्ट्रम डिसॉर्डर कहते हैं। हर बच्चे को यह अलग मात्रा में ग्रसित करती है । कुछ को कम, कुछ को ज्यादा। हर बच्चा अलग।
ऑटिस्टिक बच्चों में जो लक्षण आमतौर पर नजर आते हैं उनमें बोलचाल का कम होना, भाषा से अलग आवाज़ निकालना, देर से बोलना सीखना, एक ही शब्द,वाक्य बार बार बोलना, मैं और तुम जैसे सर्वनाम के प्रयोग में गलती करना, मेलमिलाप कम करना और नापसंद करना, आँख ना मिलाना, पूछी बात पर प्रतिक्रिया ना देना, चिड़चिड़ा रहना, हाथ हिलाते रहना,कूदना,गोल घूमना, बैलेंस बनाने की कोशिश करना,ऐड़ी पर चलना, कुछ आवाज़ों को सख्त नापसंद करना
कुछ कपड़ों, खाने की चीज़ों को नापसंद करना, बात दुहराना, खुद को नुकसान पहुँचाना। इनमें से कई बातें हो सकती है और कई नहीं भी। हर बात की तीव्रता भी अलग हो सकती है। हर बच्चा अलग होता है...और उसका सामर्थ्य भी।
हालांकि बेजी जैसन ने इस संबंध में कुछ गलत धारणायें भी बताई हैं जो इस प्रकार है
1. ऑटिस्म से ग्रसित बच्चे कभी आँख नहीं मिलाते। ऐसा नहीं है। और काफी बच्चे निरंतर प्रयास करने के बाद सीखते भी हैं।
2.ऐसा बच्चा जीनियस होता है। हर आई क्यू का बच्चा ऑटिस्टिक हो सकता है।
3.ऐसा बच्चा प्यार नहीं दिखाता, समझता। प्यार की अभिव्यक्ति इन बच्चों के लिए मुश्किल जरूर है...असँभव नहीं। लगातार कोशिश के बाद बच्चे प्यार जताना और दिखाना सीख जाते हैं।
4.बच्चे में सुधार का मतलब बच्चे को तकलीफ नहीं है। सुधार का मतलब प्रयास, स्नेह और साँत्वना है।
5.मुस्कुराते बच्चे का मतलब वह ऑटिस्टिक नहीं है। गलत। हर लक्षण की तीव्रता अलग हो सकती है। 6.समय के साथ ऑटिस्म पीछे छूट जाता है। नहीं।इसे उपचार और लगातार प्रयास की जरूरत है। जिसके बाद ऐसे बच्चे अर्थपूर्ण जीवन पा सकते हैं।
7.खराब परवरिश इसके लिए जिम्मेदार है।
कोई बच्चा ऑटिस्टिक है या नहीं यह जानने के लिए दो तरह के टेस्ट हैं
1- CHAT(Checklist for Autism in Toddlers test)
http://www.paains.org.uk/Autism/chat.htm
2- ATEC Test(Autism Treatment Evaluation Checklist )
http://www.autism.com/ari/atec/

कोई भी शंका के होने पर बाल रोग विशेषज्ञ नहीं तो चाइल्ड सायकोलोजिस्ट से मिलें। इस अवस्था के होने पर सही निदान और उपचार और लगातार प्रयास जरूरी है। अब तो ऑटिस्टिक बच्चों को जिंदगी के तौर-तरीके सिखाने के लिए भी क्लीनिक और कुछ साइंटिफिक तरीके ईजाद हो गये हैं। हालांकि ये 100 फीसदी कारगर तो नहीं हैं मगर समाज की मुख्य धारा से ऐसे बच्चों को जोड़ने में सहायक हो सकते हैं। लेकिन इसके लिए बहुत सारा धैर्य और सही दृष्टिकोण चाहिए। अगर ऐसा हो सके तो ऐसे बच्चे अर्थपूर्ण अस्तित्व पा सकते हैं। ऐसे बच्चे निर्धारित लक्ष्य पा सकते हैं और जीवन में कुछ बन सकते हैं।


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Wednesday, September 2, 2009

क्या कहूं कि मन मेरा कुलाचें भर रहा है....

यही कोई सात-साढ़े सात का वक्त हुआ रहा होगा। मैं अपने कंप्यूटर से भिड़ा हुआ था जैसा कि अमूमन होता ही है क्योंकि सीसीटीवी कैमरा संपादक की तरह आंखे जो तरेर रहा था। इस दौरान बार-बार "ओह", "अर र", "उफ", "अबे देख के" ........ जैसी आवाजें मेरा ध्यान भंग करने लगीं। इन आवाजों ने फेविकोल के जोड़ की तरह कुर्सी से चिपके होने के बावजूद मुझे उस ओर जाने को मजबूर कर दिया जिस ओर से आवाजें आ रही थीं।
वह सोमवार, 31 अगस्त का दिन था और ऐसा कोई खास भी नहीं था। सुबह 11 बजे के आस-पास ऑफिस पहुंचा तो भी कुछ विशेष नहीं प्रतीत हुआ। सब कुछ सामान्य सा था मगर शाम को जो हुआ वह कभी भी सामान्य न था। करीब पांच बजे हमारे सहयोगी यादव जी ने मुझसे पूछा "भई आज मैच कितने बजे से है।" मैं अपनी कुर्सी पर आराम से बैठे-बैठे भी हड़बड़ा गया। मैं अपने सहयोगी को ऊपर से नीचे तक देखा और उसके चेहरे पर एक अजीब सी खुशी देखी। मैं जैसे ही बोलने को हुआ वह बोले "चाहे जितने बजे से हो, मैच तो भारत ही जीतेगा।" मैं समझ तो गया कि वह नेहरु कप फुटबाल के फाइनल की बात कर रहे हैं, मगर अंजान बनते हुए पूछने की हिमाकत कर बैठा "किस मैच की बात कर रहे हैं यादव जी।" थोड़ा मुंह टेढ़ा करते हुए यादव जी बोले "क्यों मजाक करते हैं सरजी। आपको तो पता होना ही चाहिए। आखिर इसकी खबर भी तो आप ही बनायेंगे ना।" मुझे ताज्जुब हुआ कि क्रिकेट के अलावा किसी और खेलों के बारे में सपने में भी नहीं सोचने वाले यादव जी को फुटबाल की इतनी चिंता क्यों हो रही है। खैर, उनको मैंने समय तो बता दिया और अपने काम में लग गया।
यही कोई सात-साढ़े सात का वक्त हुआ रहा होगा। मैं अपने कंप्यूटर से भिड़ा हुआ था जैसा कि अमूमन होता ही है क्योंकि सीसीटीवी कैमरा संपादक की तरह आंखे जो तरेर रहा था। इस दौरान बार-बार "ओह", "अर र", "उफ", "अबे देख के" ........ जैसी आवाजें मेरा ध्यान भंग करने लगीं। इन आवाजों ने फेविकोल के जोड़ की तरह कुर्सी से चिपके होने के बावजूद मुझे उस ओर जाने को मजबूर कर दिया जिस ओर से आवाजें आ रही थीं। देखता हूं तो पांच-छह लोग टीवी की ओर पलक झपकाये बिना नजरें गड़ाए हुए थे। उनको इस तरह से टीवी से चिपके हुए देखकर यह भ्रम हो सकता था कि क्रिकेट का कोई बेहद रोमांचक मैच चल रहा होगा मगर नहीं, यहां तो एक फुटबाल के पीछे 22 खिलाड़ी भाग रहे थे और ये सभी सांस थामे एकटक टीवी से चिपके हुए थे। मैं भी उसी में शामिल हो गया। बमुश्किल दस मिनट में ही खेल के दोनों हाफ गोलरहित समाप्त हो गये मगर भारतीय खिलाड़ियों द्वारा गंवाए गये मौकों की आलोचना शुरु हो चुकी थी, जो उत्साह बढ़ाने वाली थी।
कारण, फुटबाल के बारे में भी कोई ऐसे बात कर सकता है। इस बातचीत में धीरे-धीरे और लोग भी शरीक होते गये और मैच की रोमांचकता हमारे ऑफिस में अपना जगह बना चुकी थी। अतिरिक्त समय में खिंचे मैच में जब रेनेडी सिंह ने फ्री किक पर गोल दागा तो स्टेडियम में क्रिकेट मैचों जैसी भीड़ ने भूटिया एंड कंपनी को सिर आंखों पर बिठा लिया तो यहां यादव जी ने अपने एक साथी को गोद में उठा लिया, मानो उसी ने गोल दाग हो। मैच खत्म होने से महज कुछ सेकंड पहले सीरियाई खिलाड़ी ने बराबरी का गोल दाग दिया तो स्टेडियम का सन्नाटा हमारे यहां भी पसर चुका था। "अबे, स्सा...??? दो मिनट तक गेंद अपने पास नहीं रख सकते थे।" "अबे यार सारा मजा किरकिरा कर दिया।" "चल बंद कर दे यार टीवी, अब तो स्सा...??? हार ही जायेंगे।" मगर कोई टीवी बंद करने के लिए आगे नहीं आया। बहरहाल पेनॉल्टी स्ट्रोक के साथ रोमांच अपनी हद तक पहुंच चुका था। यादव जी एक स्टूल पर बैठे हुए थे लेकिन सडेन डेथ शुरु होते ही वे एक पैर स्टूल पर रखकर जरा टेढ़े खड़े हो गये। यादव जी क्रिकेट के मैचों के दौरान अमूमन ऐसे ही खड़े होते हैं। सातवें शॉट को भारतीय गोलकीपर सुब्रत ने जैसे ही रोका, भारत चैंपियन बन बैठा। लगातार दूसरी बार, उसी सीरियाई टीम को हराकर। मगर मुझे लगा कि भारत नहीं बल्कि यादव जी, गोपाले जी और वहां उपस्थित लोग चैंपियन बन गये हों। यादव जी पीछे पलटे और मुझे उठाकर अतिरोमांचित होकर बोले " सर जी हम फिर चैंपियन बन गये।" उनका यह कहना मुझे जरा भावुक कर गया।
खैर,
क्रिकेट से इतर खेलों में जब भी कोई खिलाड़ी देश का नाम रोशन करता है, मुझे बेहद खुशी होती है। मगर क्रिकेट के प्रति जैसी दीवानगी देखने को नजर आती है, वैसी दीवानगी से कहीं से भी कमतर नहीं था वह माहौल जिसका जिक्र मैं ऊपर कर चुका हूं। दरअसल क्रिकेट की लोकप्रियता की आलोचना करने वालों से जरा मैं कम सहमत हूं, यह चाहने के बावजूद कि क्रिकेट से इतर खेलों को भी सम्मान मिले। मुझे ऐसा लगता है कि जब भी अन्य खेलों में कोई उपलब्धि देश ने हासिल की है, संबंधित खिलाड़ियों को प्रशंसकों ने सिर माथे बिठाया है। चाहे वह विजेंदर व सुशील का बीजिंग में कांस्य जीतना रहा हो, विश्वनाथन आनंद का शतरंज का विश्व चैंपियन बनना रहा हो, सोमदेव का टेनिस में प्रदर्शन रहा हो या सानिया मिर्जा का सनसनीखेज प्रदर्शन। सायना नेहवाल को तो यहां कतई नहीं भुलाया जा सकता जिन्होंने चंद महीनों में खुद को बैडमिंटन की दुनिया में शीर्ष दस खिलाड़ियों में शामिल करा लिया है।
वास्तव में हम भारतीयों को पहले उपलब्धि चाहिए होती है और तब हम उसके प्रति अपनी दीवानगी दिखाते हैं। क्या 1980 से पहले हॉकी की दीवानगी किसी से छिपी हुई थी। शायद नहीं, लेकिन 1980 के बाद हॉकी में पतन से दीवानगी में कुछ कमी आनी शुरु हो चुकी थी। इसी दौरान क्रिकेट, जिसके बारे में लोग बहुत कम जानते थे, ने 1983 में वर्ल्डकप जीतकर इतिहास रच डाला। इस उपलब्धि ने हॉकी से निराश हो चुके प्रशंसकों को क्रिकेट की ओर मोड़ दिया। क्रिकेट में उस उपलब्धि के बाद सफलता के साथ-साथ दीवानगी का आलम पूरे देश को चपेट में लेता गया। कपिल देव, गावस्कर, तेंदुलकर जैसे खिलाड़ी लोगों के मनमस्तिष्क में छाते गये। 1992 में जब पेस ने ओलंपिक में टेनिस में एकल का कांस्य जीता तो टेनिस की लहर छा गयी। बाद में लिएंडर पेस और महेश भूपति की जोड़ी की ग्रैंडस्लैम उपलब्धियों ने देश को सराबोर कर दिया। इसी दौरान सानिया मिर्जा का अभ्युदय हुआ। शुरुआत में बेहतरीन खेल दिखाने वाली सानिया बाद में अपनी खूबसूरती के कारण चर्चा के केंद्र में रहीं और चोटों से उनका कैरियर प्रभावित हुआ मगर टेनिस की लोकप्रियता बढ़ाने में उनका योगदान कहीं से कम नहीं है। 1996 में ही कर्णम मल्लेश्वरी ने वेटलिफ्टिंग में ओलंपिक कांस्य जीता मगर बाद में यह खेल डोपिंग में उलझ गया तो प्रशंसकों ने भी भुला दिया। 2007 में जब भारत ने नेहरु कप का खिताब जीता तो पश्चिम बंगाल के अलावा भी लोग इस खेल से जुड़ गये। उसी की याद में इस साल लोग टीवी से चिपके हुए रहे कि भारत खिताब जीत सकता है। बहरहाल भारत ने भी अपने प्रशंसकों को निराश नहीं किया लेकिन क्या होता अगर भारत हार जाता। शायद 1980 के बाद जो हश्र हॉकी का हुआ वह महज दो सालों में (2007-2009) में फुटबाल का हो चुका होता।
वास्तव में मेरा मन कुलाचें भर रहा है। कुलाचें इसलिए कि हम एक बार फिर नेहरु कप में चैंपियन बनकर उभरे और साबित किया कि हमारी पिछली जीत तुक्का भर नहीं थी। कुलाचें इसलिए भी कि हमने क्रिकेट से इतर फिर किसी खेल में अपना रुतबा कायम किया। कुलाचें इसलिए भी कि हम भारतीय किसी उपलब्धि का जश्न मनाना नहीं चूकते और पलकों पर बिठा लेते हैं। मगर मेरी शिकायत भी है खेलप्रेमियों से कि वे बहुत जल्दी ही खिलाड़ियों व उनकी उपलब्धियों को भुला देते हैं।


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Thursday, August 27, 2009

जसवंत-जसवंत पुकारती "साइकिल"

आज अचानक ही सालों पहले एक महानगर के फुटपाथ पर उत्सुकता भरी निगाहों से देख रहे लोगों के हुजूम के बीच 'गोमती चक्र' पत्थर बेचने की कोशिश कर रहे साधु का वेश धरे उस फुटपथिया दुकानदार के मुंह से बार-बार निकल रही पंक्तियां याद आ गईं,
''हीरा पड़ा बाजार में लख आएं-लख जाएं,
मूरख-मूरख चल दिये ज्ञानी लाये उठाएं।"
इस पंक्ति में साफ कहा गया है कि हीरे की पहचान ज्ञानी को ही हो सकती है। हम रोज जाने कितनी ही चीजों को निरर्थक, अनुपयोगी, कबाड़ समझकर फेंक देते हैं मगर कचड़ा बीनने वाले बच्चे उसी में कुछ ऐसा तलाश लेते हैं जो उनकी पेट की आग शांत करने में मदद देती है। रद्दी-कबाड़ा खरीदने वाले के यहां सारी रद्दियां मसलन पेपर, बोतल, प्लास्टिक और लोहे के पुराने सामान, फटेहाल जूते-चप्पल सब कुछ बिक जाता है।

मतलब यह है कि भारत दुनिया के उन देशों में शुमार है जहां कुछ भी बेकार नहीं समझा जाता। यहां पर पुरानी से पुरानी चीज खरीदने वाले मिल ही जाएंगे। वैसे भी अब तो एक्सचेंज का जमाना आ चुका है। आप यह समझ रहे होंगे कि यह मैं क्या लिखे जा रहा हूं और किस संबंध में बात करना चाहता हूं। दरअसल, मैं यहां यह बताना चाहता हूं कि इस देश में कुछ भी अनुपयोगी नहीं माना जाता। घिसी-पिटी, मार खाई वस्तुओं तक का उपयोग कर लेने वाले लोग मौजूद हैं। अब देखिये ना, इसका ताजा उदाहरण समाजवादी पार्टी की टपकती लार को देखकर ही मिल गया। जसवंत सिंह को मोहम्मद अली जिन्ना को महिमा मंडित करने और नेहरु-पटेल को देश के बंटवारे का जिम्मेदार ठहराने पर भाजपा से धकिया कर बाहर कर दिया गया। पढ़े-लिखे विद्वान जसवंत सिंह का कोई कोई पुख्ता जनाधार हो सकता है, यह भाजपा समेत अन्य लोग भी बेहतर जानते हैं। अत: भाजपा को लगा कि जसवंत उनके लिए अनुपयोगी हो चुके हैं और इस अनुपयोगी प्राणी को बाहर कर अपना घर साफ कर लिया जाना चाहिए, जिसमें जिन्ना, महिमा मंडन के धब्बे लग गये हैं। मौका भी शुभ था, गणेशोत्सव के समय आखिर घर साफ भी तो होना चाहिए न।
अब जसवंत सिंह कहां राह तलाशते, अपनी पुस्तक में पंडित जवाहर लाल नेहरू पर अंगुली उठाकर उन्होंने कांग्रेसी खेमे में घुसने से पूर्व ही उनके लिए "नो इंट्री" का बोर्ड टंगा होगा, यह जसवंत पहले ही जानते हैं। लोग सोच रहे थे कि जसवंत सिंह का अब क्या होगा? क्या ऐसा भी कोई खूंटा है जहां बंधकर वह राजनीति में प्रभावी बने रह सकें। मगर यहां तो खूंटा खुद ही जसवंत सिंह के पास भागा हुआ आ रहा है। समाजवादी पार्टी के महासचिव अमर सिंह ने साइकिल से भागते-भागते जसवंत सिंह को अपने साथ आने का आफर दे दिया। सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव तक अमर सिंह के राजनीतिक फार्मूले के कायल हैं।
इन दोनों सपाइयों को भ्रम हो गया है कि जसवंत सिंह ने अपने जिन्नागान से मुसलमानों में अपनी अच्छी छवि बना ली है। जसवंत के सपा में आने पर मुस्लिम वोट बैंक पर सपा की पकड़ मजबूत होगी। ऐसी सोच का तो भगवान ही मालिक है। जिन्ना की वंदना से जसवंत पाकिस्तानियों में थोड़ी-बहुत लोकप्रियता पा सकते हैं लेकिन किसी भारतीय पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा? जसवंत सिंह को ऐसा खुला न्यौता देकर सपाइयों ने खुद को विनोद का विषय बना डाला है। जसवंत सिंह को पार्टी में आने का ऑफर देना यह प्रमाणित करता है कि इस राजनीतिक दल में देशव्यापी पहचान वाले चेहरों का घोर अभाव है। भाजपा से बाहर हुए कल्याण सिंह को लाल टोपी पहनाकर सपा नेतृत्व को अपने ही पुराने साथियों का असंतोष झेलना पड़ा। कुछेक लोकप्रिय फिल्मी हीरो-हीरोइनों के सहारे सपा की गाड़ी कितनी आगे बढ़ पाई है? कल्याण सिंह से दोस्ती की वजह दोनों पक्षों के अपने-अपने हित रहे हैं। कल्याण सिंह को चाहिए था ठौर और सपा को एक और मुखौटा। जसवंत सिंह पर डोरे डालने के पीछे वही भावना है। भाजपा ने अपने लिए अनुपयोगी जसवंत सिंह को भले बाहर कर दिया, परंतु सपा को उनमें फिर भी कुछ दिख रहा है। क्या इससे एक बार पुन: साबित नहीं हुआ कि हमारे यहाँ कुछ भी बेकार नही होता? चीज मिले भर लोग उसका उपयोग स्वयं तलाश लेते हैं।
और कुछ इतर,
आज ही मैंने एक लेख पढ़ा चेतन भगत का। उन्होंने लिखा है कि इस बात से क्या फर्क पड़ता है कि जिन्ना धर्मनिरपेक्ष थे या सांप्रदायिक? इससे हमारे जीवन पर क्या असर पड़ता है? जिन्ना को शांति से विश्राम करने दें। किताब जहां है उसे रहने दें। इतिहास जैसे विषय को लेकर बहुत ज्यादा चिंतित न हों। एक नया विषय निर्मित करें, जिसका नाम हो- "भविष्य"। क्या वास्तव में चेतन की बात सोचने पर मजबूर नहीं करती। गड़े मुर्दे उखाड़कर हम भारत के भविष्य की कौन सी दिशा तय कर सकते हैं। जिन्ना या उन जैसे तमाम मामले भारत के लिए आज किस तरह प्रासंगिक हैं। हमें तो भारत के लिए भविष्य के नेता चुनने हैं, इतिहास के शिक्षक नहीं। जसवंत सिंह या आडवाणी कुछ भी लिखें, इससे क्या फर्क पड़ता है।


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Saturday, August 22, 2009

चिंतन बैठक, कारण और जसवंत का जाना

शिमला में लोकसभा चुनावों में पार्टी की हार का मंथन करने के लिए भाजपा की चिंतन बैठक से पूर्व ही "धर्मनिरपेक्ष जिन्ना" के जिन्न के लपेटे में आ गये "जिन्ना, इंडिया-विभाजन-इंडिपेंडेंस" के लेखक और वरिष्ठ भाजपा नेता जसवंत सिंह। ताज्जुब की बात यह है कि भाजपा की हार के कारणों की जांच करने और आत्मचिंतन की मांग यशवंत सिन्हा और अरुण शौरी के साथ जसवंत सिंह बेहद जोर शोर से कर रहे थे और इस चिंतन बैठक में हार के जो फौरी कारण गिनाए गये-
- मनमोहन सिंह पर व्यक्तिगत टिप्पणी
- वरुण गांधी का भड़काऊ भाषण
-भावी पीएम के तौर पर नरेंद्र मोदी का नाम उछालना
- चुनावी कैम्पेन थीम का सही तरीके से पेश न होना
- नेतृत्व में एकता की कमी
- अपना अजेंडा पेश करने में नाकामी
- मुंबई अटैक पर कांग्रेस को घेर पाने में नाकामी
- बदले में कंधार मामले का चर्चा में आ जाना
- युवाओं से न जुड़ पाना
- गठजोड़ में कमजोरी, उड़ीसा में गठबंधन टूटना
- हरियाणा में पॉप्युलर मूड को न समझ पाना और पंजाब में सहयोगी के तौर-तरीके
में, कहीं भी जसवंत सिंह कारण नजर नहीं आये मगर जिन्ना को धर्मनिरपेक्ष बताकर संघ की नाराजगी से बचने के लिए भाजपा से बाहर कर दिए गये जसवंत। मगर पार्टी के हार के कारणों के जो कारण बताये गये, उसके जिम्मेदार लोग तो पार्टी में ही बने हुए हैं और लालकृष्ण आडवाणी पार्टी अध्यक्ष बने रहेंगे। इसका तात्पर्य है कि पार्टी भविष्य की ओर नहीं देख रही और अपने पुराने इतिहास पर ही कायम है। आखिर हार के कारणों में तो युवाओं को पार्टी से न जोड़ पाना भी तो रहा मगर भाजपा आडवाणी के अलावा किसी और को देखना नहीं चाहती। ऐसे में पार्टी के युवा नेताओं में असंतोष से इनकार नहीं किया जा सकता जो कि चुनाव पूर्व से जारी है।
अगर हार के कारणों पर जरा शिद्दत से नजर डालें तो हर कारण के "कारण" काफी हद तक आडवाणी ही नजर आते हैं, मसलन पीएम पर व्यक्तिगत टिप्पणी उन्होंने ही शुरु की, मुंबई हमले के जवाब में कंधार मामला उठने पर यह बयान देना कि तत्कालीन विदेश मंत्री जसवंत सिंह के कंधार जाने की उन्हें जानकारी नहीं थी, (जिससे यह संदेश गया कि गृहमंत्री और विदेश मंत्री में एका नहीं है)। वैसे एकमात्र कारण उन्हें ही नहीं माना जा सकता मगर पीएम इन वेटिंग को जिम्मेदारी ओढ़नी थी, जिसका वह साहस नहीं दिखा सके।
चिंतन बैठक के बाद आडवाणी का विपक्ष का नेता बने रहने पर मुहर लगने से यह स्पष्ट हो गया कि वह खुद हार की जिम्मेदारी लेने से बचना चाह रहे हैं या उनमें ऐसे साहस की कमी है। यानि हार के कारणों को बेहद हल्केपन में लेना जो कि पार्टी के भविष्य के संबंध में खतरनाक संकेत दे रही है। मगर यह सवाल हमेशा ही बना रहेगा जिन्ना को सेक्युलर बताकर लालकृष्ण आडवाणी बाद में पार्टी की ओर देश के पीएम इन वेटिंग बने मगर जसवंत सिंह को दरवाजा दिखा दिया गया। इस संबंध में हमारे एक साथी ने एक टिप्पणी की जिसके सही होने का दावा नहीं किया जा सकता मगर परिस्थितियों को देखते हुए इसकी चर्चा जरुर की जा सकती है।
चुनावों में शिकस्त के बाद मीडिया से लेकर पार्टी के कुछ नेताओं ने भाजपा की करारी हार के लिए आडवाणी को पीएम एन वेटिंग पेश करने के साथ कंधार मामले में उनके दिये गये बयान को जिम्मेदार मानना शुरु कर दिया था जबकि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर व्यक्तिगत टिप्पणी भी कारणों में हावी रही। ऐसे में आडवाणी खुद को कमजोर समझने लगे थे और वे हार के कारणों पर चिंतन बैठक की मांग करने वाले जसवंत सिंह को हासिए पर डालने की ताक में थे। जसवंत सिंह ने भी उन्हें जिन्ना को धर्मनिरपेक्ष और नेहरु तथा पटेल को बंटवारे के लिए जिम्मेदार ठहराकर दे दिया। इसके बाद मीडिया में जसवंत की आलोचना होने लगी और आडवाणी को मौका मिल गया। भाजपा ने चिंतन बैठक के पहले दिन मंथन शुरु होने से पूर्व ही उन्हें पार्टी से बाहर कर दिया।
खैर हमारे साथी की यह टिप्पणी कितनी वाजिब है, यह एक अलग मुद्दा है मगर परिस्थितियों को जोड़ने की उसकी कला का मैं कायल हो गया। खैर आडवाणी का बने रहना इसलिए भी जरुरी हो सकता है कि भाजपा के पास अभी भी कोई राष्ट्रीय चेहरा नहीं है जिसको सौंपकर आडवाणी अपनी राजनीतिक सक्रियता पर पूर्ण विराम लगा सकें। मगर जसवंत का जाने से भाजपा में ही असंतोष से इनकार नहीं किया जा सकता है।
जहां तक जसवंत सिंह की बात है तो जिन्ना पर किताब लिखने का प्रयास करना जसवंत सिंह एक बड़ी राजनीतिक चाल हो सकती थी। वह शायद उस मंजिल तक पहुंचना चाहते थे, जिस पर पहुंचने में आडवाणी असफल रहे। यह मकसद है, देश के मुसलमानों को अपने प्रति आकृष्ट करना। मगर इसमें वे असफल रहे और पार्टी से बाहर हो गये। लोकसभा चुनावों से पहले से बीजेपी में एक आंतरिक संघर्ष चल रहा है, जो चुनाव परिणाम के बाद और तीखा हुआ है।आडवाणी, राजनाथ सिंह, सुषमा स्वराज, मुरली मनोहर जोशी- ये सभी एक दूसरे के खिलाफ अखाड़े में खड़े हैं। इस स्थिति में ना तो कोई जसवंत सिंह से उनका मत पूछ रहा था, ना उन्हें कोई महत्व दिया जा रहा था। ऐसे में उनके सामने अपना वजूद साबित करने की जरुरत उन्होने समझी और इसके लिए जिन्ना का सहारा लिया। नतीजा जिन्ना के जिन्न ने उन्हें निगल लिया मगर भाजपा को अन्य किसी के जिन्न से बचने के लिए समझदारी और दूरदर्शिता दिखानी होगी।


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Friday, August 21, 2009

हो "जिगर" तो बनेगी प्रेम की डगर

हमारे देश में हर साल करीब दो लाख लोगों की मौत जिगर (लीवर) फेल होने से होती है। इनमें से २० से ३० हजार लोग बचाये जा सकते हैं मगर इनको जिगर प्रत्यारोपण की आवश्यकता होती है। लेकिन जिगर प्रत्यारोपण के लिए "जिगर" कम ही लोग दिखाते हैं। भारत में जिगर प्रत्यारोपण के हर साल केवल तीन से चार सौ मामले आते हैं और यह बेहद निराशाजनक है। यह जागरुकता की कमी हो या कुछ और, मगर विज्ञान की तरक्की को जरुर मुंह चिढ़ाती नजर आती है। अभी पिछले दिनों दिल्ली के सर गंगाराम अस्पताल में दो मरीजों का एक साथ जिगर प्रत्यारोपण का आपरेशन हुआ और "जिगर" वालों के जिगर से दो जिंदगियां बचाई जा सकीं। दरअसल इस ऑपरेशन की खास बात यह रही कि इसने राष्ट्रों की सीमाओं को दरकिनार कर दिया और प्रेम की नई डगर पर चलने का साहस दिखाया।


इस ऑपरेशन के माध्यम से बचीं दो देशों की दो जिंदगियां। एक भारतीय तो दूसरी नाईजीरियाई। दोनों परिवारों के लोग एक दूसरे को जानते तक न थे मगर "जिगर" के चलते दोनों एक दूसरे से अंतहीन प्रेम के बंधन में बंध गये। इसमें भारतीय दानकर्ता ने जहां नाईजीरिया के १७ माह बच्चे को नई जिंदगी दी, वहीं नाईजीरियाई महिला ने अपना जिगर देकर भारतीय महिला की जान बचाई। तीन महीने पहले तक नाईजीरिया में रहनेवाला 18 महीने का डीके और मुम्बई की 44 वर्षीय प्रिया आहुजा एक ही समस्या से जूझ रहे थे। दोनों के लीवर ख़राब हो चुके था और दोनों को लीवर ट्रांसप्लाट की ज़रुरत थी लेकिन यहां सबसे बडी दिक्कत थी ब्लड ग्रुप के मैचिंग की। दरअलस डीके का ब्लड ग्रुप बी था और उसकी मां चिन्वे का ए, डीके के पिता का ब्लड ग्रुप बेटे से मिलता तो था लेकिन उनके लीवर का आकार बडा था। वहीं प्रिया का ब्लड ग्रुप ए था और उनके पति हरीश का बी। ये दोनो ही मामले सर गंगा राम अस्पताल के डाक्टरों के सामने आए और उन्होंने काफ़ी विचार-विमर्श करने के बाद एक नायाब तरीक़ा निकाला- स्वैप लीवर ट्रांसप्लांट यानि दानदाताओं की अदला बदली। डीके लिए दानदाता बने हरीश और प्रिया के लिए डीके की मां चिन्वे. ऐसी सर्जरी भारत में पहली बार हुई और शायद पुरी दुनिया में ये अपनी तरह का पहला मामला है.इस ऑपरेशन में चार ओटी हुई जबकि 35 डॉक्टरों ने मिलकर इस ऑपरेशन को सफल बनाया। 16 घंटे तक लगातार ऑपरेशन के दौरान डिके को हरीश ने अपना २० फीसदी जिगर दिया जबकि प्रिया को चिन्वे ने ५० फीसदी जिगर।



इस ऑपरेशन के लिए जहां डॉक्टर्स सराहना के हकदार हैं वहीं भारत और नाईजीरिया के इन दो परिवारों ने पूरी दुनिया को नई रोशनी दे दी। वैसे सुनने में तो यह बेहद आसान लगता है कि दोनों परिवारों की जरुरतों ने एक दूसरे की मदद के लिए प्रेरित किया लेकिन इसके लिए भी जज्बा होना चाहिए, जो दोनों परिवारों ने दिखाया। वास्तव में इस जज्बे की सराहना की जानी चाहिए ताकि अन्य लोग भी इसके लीवर प्रत्यारोपण/स्वैप लीवर प्रत्यारोपण के लिए आगे आ सकें। नेत्र दान/अंग दान के लिए सरकारी प्रयास और तमाम एनजीओ के दिन रात प्रयासों की सफलता कितनी प्रतिशत रही है, यह किसी से छिपा नहीं है। आज भी लोग ऐसे मामलों में बहुत पीछे नजर आते हैं। इसलिए डीके और प्रिया जैसे प्रयास को निश्चित ही उजागर किया जाना चाहिए क्योंकि इससे न सिर्फ जिंदगियां बचतीं हैं बल्कि प्रेम के एक नये युग का संचार होता है।


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Wednesday, July 8, 2009

"उयघूर दमन" पर उतारु चीन

वैसे ऐसा बहुत कम होता है कि दुनिया भर में कहीं भी मुस्लिम समुदाय या व्यक्ति पर, गलत/सही कोई भी कार्रवाई हो, चाहे ऐसे मामलों में मुस्लिम समुदाय ही दोषी क्यों न हो, दुनिया भर के मुस्लिम देशों में विरोध की आवाज जरुर उठती रही है मगर चीन में "उयघूर" मुस्लिमों के दमन पर अभी तक किसी भी देश ने कोई बयान जारी नहीं किया है. फ्रांस की सरकार ने हाल ही में जब बुर्के को महिलाओं की गुलामी की निशानी बताकर उस पर प्रतिबंध लगा दिया था तो कई मुस्लिम देशों ने इसे अपनी स्वतंत्रता और तहजीब पर आघात मानकर इसके खिलाफ आवाज उठायी थी. फ्रांस सरकार का यह फैसला गलत था या सही यह तो बात की बात लेकिन इन देशों का बुर्के के पक्ष में उनकी तहजीब और स्वतंत्रता पर खतरा उत्पन्न होने की दलील जरा गले नहीं उतरी क्योंकि महिलाओं को बुर्का पहनने पर मजबूर करना भी तो उनकी स्वतंत्रता पर तुषारापात जैसा ही है. इस बात पर आश्चर्य होता है उयघूर मुस्लिमों पर हो रहे अत्याचार के विरुद्ध पश्चिमी देशों से आवाज उठ रही है लेकिन सारी दुनिया के मुसलमानों के हितों के लिए संघर्ष का दावा करने वाले ठेकेदार देश पाकिस्तान, ईरान और सउदी अरब की चीन के सामने घिग्घी बंधी हुई है। खैर, बात उयघूरों की
चीन के शिनझियांग प्रांत के उरुकमी में उयघूर मुस्लिमों और हान चीनियों के बीच पिछले कुछ दिनों की टकराव में सैकड़ों लोगों के मारे जाने के बीच मुस्लिम देशों की चुप्पी सालने वाली है। वैसे उयघूर मुस्लिमों के प्रति चीनी सरकार का यह दमनात्मक रवैया कोई पहली बार नहीं है। कई बार तो खबरों पर सरकारी नियंत्रण के चलते ऐसी खबरें बाहर नहीं आ पातीं. पिछले दो-तीन दिनों में शिंनझियांग के उरुकमी में उयघूर मुस्लिमों और हान चीनियों के बीच संघर्ष में पौने दो सौ उयघूर मुस्लिम मारे गये हैं। लगभग एक हजार घायल हैं। इस बीच शहर में कर्फ्यू लगा दिया गया है जिसका सीधा सा मतलब है कि उयघूरों के प्रति चीनी सरकार के रवैये में कोई अंतर आने वाला नहीं है. चीन की इस दमनात्मक नीति के खिलाफ उयघूर मुस्लिम विरोध का झंडा बुलंद किए हुए हैं. इन विरोध प्रदर्शनों की सारी कार्रवाई, विश्व उयघूर कांग्रेस की नेता रबिया कदीर द्वारा चलायी जा रही है. रबिया कदीर उयघूर की एक निर्वासित महिला व्यावसायी हैं और फ़िलहाल अमेरिका में हैं. सुश्री कदीर को चीन सरकार ने अलगाववादी कार्रवाइयों में संलिप्त रहने का आरोप लगा कर उन्हें कई सालों तक जेल में बंद रखा था. उयघूर अलगाववादी समूहों का कहना है कि लोगों का विरोध सरकारी नीतियों और आर्थिक लाभों पर हान चीनी एकाधिकार के खिलाफ़ है. लेकिन अपनी भौगोलिक सीमा बढ़ाने को लेकर अक्सर ही दादागिरी करने वाला चीन इसे हिंसा फैलने के तौर पर देख रही है. वैसे भी चीनी सरकार ने कभी उयघूर मुस्लिमों के प्रति सम्माजनक नजरिए से देखने की जरुरत नहीं समझी.
* क्यों हुआ संघर्ष
दरअसल संघर्ष की वास्तविक वजह सालों से चले आ रहे चीनियों व उयघूरों के परस्पर संबंधों में छिपी है। दूसरे शब्दों में कहें तो आज मूल चीनी हान समुदाय व उइगरों के बीच सौहा‌र्द्र का एक अंश भी नहीं बचा। उयघूर और हान चीनियों के बीच हुई हिंसा के पीछे की कहानी यह है कि पिछले महीने उरुमकाई शहर की एक स्थानीय वेबसाइट पर यह लिख दिया गया कि शिनझियांग प्रांत से आए हान मूल के लड़कों ने दो उयघूर लड़कियों के साथ बलात्कार किया है. इसके बाद ही हान और उयघूर समुदायों के बीच संघर्ष में दो लोगों की मौत हो गयी थी जबकि 118 घायल हो गये थे. उस घटना के बाद से दोनों ही समुदायों में बदले की आग सुलग रही थी जिसने बीते रविवार की रात दंगों का रुप ले लिया. दंगों की शुरुआत शिनझियांग की राजधानी उरुमकी में शुरु हुई. इसके बाद से ही हुए संघर्ष में 166 से अधिक लोग मारे गये. चूंकि इस इस संघर्ष के बाद चीनी सरकार ने इंटरनेट पर रोक लगा दी, इसलिए उसकी कार्रवाई पर संदेह होना लाजिमी है.
* संघर्ष के मूल में कुछ और तो नहीं
वैसे इस संघर्ष के मूल में कुछ दूसरी कहानी भी हो सकती है. उयघूर मुस्लिमों का आरोप है कि चीन की सरकार हान लोगों कों उरुमकाई शहर में जबरदस्ती बसा रही है. उरूमकाई शहर (शिनझियांग प्रांत) की बात करें तो यह चीन का मुस्लिम बहुल इलाका है। उरुमकाई की आबादी लगभग 23 लाख के करीब है जबकि शिनझियांग क्षेत्र में 80 लाख उयघूर मुस्लिम हैं. ये उयघूर समुदाय चीनी सरकार पर अपने अधिकारों के दमन का आरोप लगाते रहे हैं। शिनझियांग प्रांत मूल रुप से उयघूरों का ही क्षेत्र है लेकिन उसकी स्वायत्तता चीन को बर्दाश्त नहीं हुई और पूर्व में उसने इस क्षेत्र पर अपना कब्जा जमाने के बाद धीरे-धीरे चीन के मूल निवासियों हान को बसाना शुरु कर दिया. इससे न सिर्फ असंतुलन बढ़ा बल्कि इन दोनों समुदायों के बीच संघर्ष शुरु हो गया. इस संघर्ष के बहाने चीन सरकार को अपनी दमनात्मक नीति को आगे बढ़ाने का मौका और छूट मिल गयी. वैसे भी उसकी बढ़ती ताकत को देखकर कोई और देश उसके खिलाफ आवाज नहीं उठा पाता. उयघूर की स्थिति की तुलना चीन के कब्जे वाले तिब्बत से की जाती है। ऐतिहासिक संदर्भों का उल्लेख कर चीन जिस तरह तिब्बत को हड़पे बैठा है वैसा ही उसने शिंनझियांग प्रांत के तेल बहुल उस इलाके में किया जहां उयघूर मुसलमान अधिक हैं। लेकिन तिब्बत की तुलना में शिंनझियांग की परिस्थितियां थोड़ी भिन्न हैं। वैसे चीनी की नजर इस क्षेत्र पर इसलिए भी है क्योंकि यह तेल व खनिज भंडारों से समृद्ध है. शिनझियांग की सीमा मध्य एशिया के आठ देशों को छूती हैं, जिनमें भारत, पाकिस्तान और अफगानिस्तान भी शामिल हैं। चीन की बढ़ती आर्थिक व राजनीतिक ताकत के प्रति उयघूर नाखुशी दर्शाते रहे हैं। उयघूरों व चीनियों के संबंध सदियों पहले सिल्क रूट से जुड़े हैं। इसी सिल्क मार्ग से पश्चिम एशिया, यूरोप व भारतीय उपमहाद्वीप में चीनी रेशम का व्यापार होता था। लेकिन बीते रविवार को शिनजियांग की राजधानी उरुमकी में भड़के दंगों में सारी सीमाएं टूट गईं।
* उयघूर कौन
इस्टर्न और सेंट्रल एशिया में निवास करने वाले उयघूर मूलत: तुर्की समुदाय से संबंध रखने वाले मुस्लिम हैं। वर्तमान की बात करें तो ये मुख्यरुप से चीन के शिनझियांग क्षेत्र में रहते हैं जिसे "शिनजियांग उयघूर ऑटोनॉमस रीजन" कहा जाता है. वैसे इसे इसके विवादास्पद "उयघूरस्तान/पूर्वी तुर्कीस्तान" के नाम से भी जाना जाता है. (अंग्रेजी में Uyghur, Uighur, Uygur और Uigur के रुप में प्रयोग किया जाता है.) उयघूर मुस्लिम कजाखस्तान, किर्गीस्तान, उजबेकिस्तान में अधिक संख्या में और मंगोलिया, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, रुस में कुछ संख्या में हैं लेकिन मुख्य रुप से अब यह समुदाय चीन की राजधानी बीजिंग और शंघाई में ही हैं.इतिहास की नजर से देखें तो तुर्की भाषा बोलने उयघूर मध्य एशिया के एल्टे माउंटेन, गोक्टर्स के आस-पास रहने वाले थे। पिछले दो हजार सालों में उयघूर मुस्लिमों ने काफी उतार-चढ़ाव देखे हैं। कभी यहां राज करने वाले उयघूर आज दमन सहने पर मजबूर हैं।
* आतंकवादी बताता रहा है चीन
प्राचीनकाल से विस्तारवादी प्रवृत्तिवाला चीन कभी उयघूर मुस्लिमों पर विश्वास नहीं कर सका। चीन उन्हें हमेशा से ही पृथकतावादी और उग्रवादी बताया जाता रहा और इसके नाम पर उनका निरंतर दमन किया गया। ताजा विवाद के बाद यह तो तय है कि उयघूर मुस्लिमों में चीनी शासकों के प्रति नफरत दो गुनी बढ़ चुकी होगी। उनका संघर्ष और विरोध इस तरह के दमन से दम नहीं तोडऩे वाला। उयघूर दशकों से चीन से स्वतंत्रता के लिए आंदोलन कर रहे हैं। उनका धैर्य जब टूटने लगता और हताशा बढ़ती है तो वे हिंसा का सहारा लेने लगते हैं। लेकिन चीनी सरकार द्वारा बताया यह जाता रहा कि संदिग्ध उयघूर मुस्लिम आतंकवादियों की धरपकड़ के लिए इस तरह की कार्रवाई की जाती है। इन आरोपों को गलत नहीं कहा जा सकता कि चीन की जेलों और गुप्त यातनागृहों में सैकड़ों उयघूर मुस्लिम फंसे हुए हैं। पिछले साल बीजिंग ओलंपिक के दौरान चीन में हुए भीषण विस्फोट में डेढ़ दर्जन पुलिसकर्मी मारे गये थे। तब इसे सरकार ने उयघूर आतंकवादियों की करतूत करार दिया था और कई लोगों को गिरफ्तार कर जेल में ठूंस दिया गया था
* थोपा गया सांस्कृतिक औपनिवेशवाद
सामान्य रूप से देखें तो उयघूर व चीन के संबंध खासे उलझे नजर आते हैं। शिनजियांग चीन के बनिस्बत पाकिस्तान, उज्बेकिस्तान व कजाखिस्तान के कहीं ज्यादा करीब दिखाई देता है। काशगर की सड़कों पर घूमते हुए ऐसा नही लगता कि यह चीन का कोई इलाका है। चीन लोगों की राय में उयघूरों पर विश्वास नहीं किया जा सकता। वे जेबकतरे हैं और ऐसे ही कामों में लिप्त रहते हैं। दोनों की संस्कृति, आचार-विचार, धर्म व राजनीति सोच में काफी भिन्नता है। यही कारण है कि उयघूर समुदाय इसे थोपा गया सांस्कृतिक औपनिवेशवाद करार देते हैं जबकि चीनी सरकार का कहना है कि अलगाववादी उयघूर इस्लामिक कंट्टरपंथी हैं जिनका मकसद शिनझियांग को चीन से आजाद कराना है। जानकारों की राय में 1989 में थ्येनआनमन नरसंहार के बाद चीन में यह सबसे बड़ी घटना है। वर्तमान में उरुम्की में हानवंशी चीनियों का दबदबा बढ़ रहा है। शिनझियांग में करीब एक करोड़ उयघूर रहते हैं और अधिकांश चीन से आजादी चाहते हैं। उनके मुताबिक यहां रह रही हानवंशियों की एक बड़ी आबादी उन्हें बाहर खदेड़ने पर तुली है। मानवाधिकार समूहों व उयघूर कार्यकर्ताओं का कहना है कि सरकार हर चीज को बढ़ा-चढ़ा कर बता रही है ताकि अपनी दमनात्मक कार्रवाई को सही ठहरा सके।


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Monday, July 6, 2009

युगपुरुष बने फेडरर


स्विट्जरलैंड के रॉजर फेडरर ने रविवार को मैराथन मुकाबले में अमेरिका के ऐंडी रॉडिक को हराकर विंबलडन टूर्नामंट जीत लिया। फेडरर का यह 15वां ग्रैंड स्लैम खिताब रहा। इस जीत के साथ ही फेडरर ने सबसे ज्यादा ग्रैंड स्लैम जीतने का इतिहास रच दिया। पहले यह रेकॉर्ड अमेरीका के पीट सैम्प्रास के नाम था। उन्होंने अपने करियर के दौरान 14 ग्रैंड स्लैम जीते थे। फेडरर रेकॉर्ड 20वीं बार किसी भी ग्रैंड स्लैम के फाइनल में पहुंचे थे। इस रिकॉर्ड के साथ युगपुरुष बने फेडरर के कुछ विशेष क्षणों पर एक नजर
15-14 का भाग्यशाली संयोग
टेनिस के युगपुरुष बन चुके रोजर फेडरर के लिए उनके ग्रैंड स्लेम रिकार्ड की संख्या ही अंततः भाग्यशाली रही। फेडरर को अमेरिका के पीट सम्प्रास का 14 ग्रैंड स्लेम खिताबों का विश्वरिकार्ड तोड़ने के लिए 15 वें खिताब की जरूरत थी। फेडरर और अमेरिका के एंडी रोडिक के बीच खिताबी मुकाबला जब पांचवें और निर्णायक सेट में प्रवेश कर गया तो किसी को उम्मीद नहीं थी कि यह इतना लंबा खिचेगा। इस सेट में 6-6 की बराबरी के बाद नियमानुसार लगातार दो गेम जीतने वाले खिलाड़ी को ही विजेता बनना था। दोनों के बीच मुकाबला गेम दर गेम आगे बढते हुए 14-14 की बराबरी पर पहुंचा। फेडरर को एक सर्विस ब्रेक की तलाश थी जो वह पूरे मैच में अब तक हासिल नहीं कर पाए थे। उन्होंने 29 वें गेम में अपनी सर्विस बरकरार रखते हुए 15-14 की बढ़त बनाई। अंततः यही संख्या उनके लिए भाग्यशाली साबित हुई और अगले गेम में उन्हें वह ब्रेक मिल गया जिसकी उन्हें तलाश थी।
साक्षी बने सम्प्रास- पीट सम्प्रास विंबलडन में अपने ही रिकार्ड टूटने के साक्षी बने। वर्ष 2002 में दूसरे दौर में विंबलडन से बाहर होने के बाद सम्प्रास फिर कभी विंबलडन में नहीं लौटे थे। लेकिन लगता है कि जैसे इसबार उन्हें यकीन था कि उनका रिकार्ड जरूर टूटेगा और वह फेडरर को यह इतिहास बनाते देखने के लिए विंबलडन के रायल बाक्स में मौजूद थे। संप्रास ने फेडरर की कामयाबी के बाद खुद उन्हें बधाई भी दी। संप्रास जब फेडरर को बधाई दे रहे थे तो उनके साथ महान राड लेवर और ब्योर्न बोर्ग भी मौजूद थे।
76 गेम के बाद मिला ब्रेक -रोडिक के खिलाफ मैच में फेडरर को चार घंटे 15 मिनट के बाद जाकर मैच का पहला ब्रेक नसीब हुआ। इस एक अदद ब्रेक के लिए फेडरर को 76 गेम तक इंतजार करना पड़। फेडरर के शानदार करिअर में ऐसा पहले कभी नहीं हुआ होगा कि उन्हें एक ब्रेक के लिए इतना लंबा इंतजार करना पडा हो।
कोर्ट के रिकॉर्ड से बहुत दूर - फेडरर ने बेशक सम्प्रास का रिकार्ड तोड दिया हो लेकिन यदि महिला चैंपियनों से तुलना की जाए तो वह आस्ट्रेलिया की मारग्रेट कोर्ट के 24 ग्रैंड स्लेम रिकार्ड से काफी दूर हैं। कोर्ट ने अपने करिअर में 11 आस्ट्रेलियन, पांच फ्रेंच, तीन विंबलडन और पांच यूएस ओपन खिताब जीते थे। जर्मनी की स्टेफी ग्राफ 22 खिताबों के साथ दूसरे, अमेरिका की हेलेन मूडी 19 खिताबों के साथ तीसरे और अमेरिका की ही क्रिस एवर्ट तथा मार्टिना नवरातिलोवा 18-18 खिताबों के साथ संयुक्त चौथे नंबर पर हैं।
रिकार्डों के नाम रहा विंबलडन का फाइनल
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इस मैच में जीतकर स्विटजरलैंड के फेडरर ने 15 ग्रैंड स्लेम जीतने वाले पहले खिलाड़ी बनने का गौरव हासिल कर लिया।
- फेडरर और रोडिक के बीच खेला गया फाइनल मैच गेम के हिसाब से टेनिस इतिहास का सबसे लंबा मैच था। इसके कुल पांच सेटों में 77 गेम खेले गए। पिछला रिकार्ड वर्ष 1927 में आस्ट्रेलियन चैंपियनशिप का था जिसमें 71 गेम खेले गए थे। इसके अलावा पिछले वर्ष फेडरर और नडाल के बीच खेले गए विंबलडन के फाइनल मुकाबले में 62 गेमों में फैसला हुआ था।
- फेडरर और रोडिक के बीच खेला गया पांचवां सेट पुरूषों के ग्रैंड स्लेम फाइनल मुकाबले का अब तक का सबसे लंबा सेट था। फेडरर ने इस सेट के अंतिम गेम को 16-14 से जीता1 इससे पहले का रिकार्ड 11-9 का था जो वर्ष 1927 में फ्रेंच ओपन में बना था।
- फाइनल के पांचवे सेट में सबसे ज्यादा गेम खेले जाने का भी रिकार्ड बना। इस सेट में कुल 30 गेम खेले गए जबकि पिछला रिकार्ड 24 गेम का था।
- फेडरर ने इस मुकाबले में सबसे ज्यादा एस भी लगाए। उन्होंने इस फाइनल मैच में कुल 50 एस लगाए। हालांकि वह इवा कार्लोविक के विंबलडन के 51 एस के रिकार्ड से एक एस पीछे रह गए। फेडरर का पिछला रिकार्ड 39 एस का था। उन्होंने वर्ष 2008 के आस्ट्रेलियन ओपन में जांको तिपसेरोव के खिलाफ 39 एस लगाए थे।


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Friday, July 3, 2009

किराया वही, नॉन स्टॉप चलेगी ट्रेन


रेल बजट 2009 -
रेल मंत्री ममता बनर्जी ने आज संसद में पेश रेल बजट में पैसिंजर्स पर खूब ' ममता ' बरसाई। गरीबों के लिए जहां 25 रुपये का मंथली पास जैसी स्कीम शुरू की गई है। वहीं ' तुरंत ' नाम से 12 नॉन स्टॉप ट्रेनें शुरू की गई हैं। इसके साथ ही किसी भी क्लास के यात्री किराए में कोई बढ़ोतरी नहीं की गई है। बजट पेश करते हुए रेल मंत्री ममता बनर्जी ने कहा कि आम आदमी को विकास में उसका हिस्सा जरूर मिलना चाहिए। उन्होंने कहा कि उनके रेल बजट में आम आदमी के हितों का ख्याल रखा जाएगा। रोजगार के मौके देना रेलवे की प्राथमिकता होगी।
किसी भी क्लास के यात्री किराए में कोई बढ़ोतरी नहीं की गई है। तत्काल कोटे में सीटें कम की जाएंगी। तत्काल स्कीम अब 5 की बजाय दो दिन के लिए लागू होगी।

नई नॉन स्टॉप पॉइंट टु पॉइंट ट्रेन सेवा ' तुरंत ' ( एसी , नॉन एसी ) का एलान। नई दिल्ली - जम्मू तवी , हावड़ा - मुंबई , मुंबई - पुणे , दिल्ली - इलाहाबाद , दिल्ली - शियालदाह , कोलकाता - अमृतसर , भुवनेश्वर - दिल्ली , एर्नाकुलम - दिल्ली , मुंबई - अहमदाबाद , हावड़ा - दिल्ली , लखनऊ - मुंबई आदि के लिए 12 नॉन स्टॉप ट्रेनें।

- ममता ने इज्जत स्कीम की घोषणा गरीबों , 1500 रुपये से काम आमदनी वालों , गैर संगठित क्षेत्र में काम करने वालों के लिए 25 रुपये में मंथली पास। इस पर वे 100 किलोमीटर तक की यात्रा कर सकेंगे। मान्यता प्राप्त पत्रकारों के लिए कंसेशन 30 फीसदी से बढ़ाकर 50 फीसदी। मदरसों के छात्रों को भी मिलेगी छूट।

- दिल्ली से चेन्नै के बीच सुपर फास्ट पार्सल सर्विस शुरू की जाएगी।
- सैम पित्रोदा की देखरेख में रेलवे ऑप्टिकल फाइबर केबल नेटवर्क पर काम तेज होगा। मालगाड़ी के 18000 डिब्बे खरीदे जाएंगे। रायबरेली में कोच फैक्ट्री का काम तेज होगा। बंगाल के काचरपाड़ा में नई कोच फैक्ट्री बनाई जाएगी।
- रेलवे कर्मचारियों के लिए 6650 मकान बनाए जाएंगे। रेलवे की जमीन पर 7 नर्सिंग कॉलिज भी बनाए जाएंगे।
- रेलवे रिक्रूटमंट बोर्ड रेलवे की भर्ती पॉलिसी पर विचार करेगी। पिछड़े और गरीब तबके के लोगों का ध्यान रखा जाएगा।
- सुरक्षा पर ज्यादा जोर रहेगा। कमांडो बटालियन बनाई जाएगी। महिलाओं की सुरक्षा पर ज्यादा ध्यान दिया जाएगा। ट्रेनों में महिला कमांडो तैनात की जाएंगी।
- इंटरसिटी ट्रेनों में डबल डेकर AC डिब्बे लगाए जाएंगे। 1000 और स्टेशनों पर रिजर्वेशन की सुविधा बढ़ाई जाएगी।
-50 स्टेशनों को विश्व स्तर का बनाया जाएगा। इसमें मुंबई , पुणे , नागपुर , हावड़ा , सियालदाह , नई दिल्ली , लखनऊ , आगरा और मथुरा स्टेशन शामिल होंगे।
-375 मॉडल स्टेशन बनाए जाएंगे। इनमें एटीएम समेत सभी सुविधाएं मुहैया करवाई जाएंगी।
-5000 डाकघरों से रेल टिकिट खरीदे जा सकेंगे। लंबी दूरी की गाड़ियों में डॉक्टर तैनात किए जाएंगे। रेल टिकिट बिक्री के लिए 50 मोबाइल वैन शुरू की जाएंगी।
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57 नई ट्रेनों का तोहफा
विशाखपत्नम-सिकंदराबाद-मुंबई सुपरफास्ट (सप्ताह में दो दिन)
श्रीगंगानगर-दिल्ली-नांदेड़ सुपरफास्ट (साप्ताहिक)
न्यू जलपाईगुड़ी-सियालदाह सुपरफास्ट (सप्ताह में तीन दिन)
बेंगलूरू-हुबली-सोलापुर सुपरफास्ट (सप्ताह में तीन दिन)
हावड़ा-बेंगलूरू सुपरफास्ट (साप्ताहिक)
पुणे-दौंद-सोलापुर सुपरफास्ट (प्रतिदिन)
रांची-हावड़ा (सप्ताह में 6 दिन)
कामाख्या-पुरी एक्सप्रेस (साप्ताहिक)
जबलपुर-अंबिकापुर एक्सप्रेस (सप्ताह में तीन दिन)
गांधीधाम-हावड़ा सुपरफास्ट (साप्ताहिक)
दिल्ली-सादुलपुर एक्सप्रेस (सप्ताह में तीन दिन)
अजमेर-भोपाल एक्सप्रेस (प्रतिदिन)
विलासपुर-तिरूवनंतपुरम सुपरफास्ट (साप्ताहिक)
मुंबई-कारवाड़ सुपरफास्ट (सप्ताह में तीन दिन)
दुर्ग-जयपुर एक्सप्रेस (साप्ताहिक)
डिब्रुगढ़ टाउन-चंडीगढ़ एक्सप्रेस (साप्ताहिक)
दिल्ली-फरक्का एक्सप्रेस (सप्ताह में दो दिन)
हजरत निजामुद्दीन-बेंगलूरू राजधानी एक्सप्रेस (सप्ताह में तीन दिन)
न्यू जलपाईगुड़ी-दिल्ली एक्सप्रेस वाया बरौनी (सप्ताह में दो दिन)
मुंबई-वाराणसी सुपरफास्ट (प्रतिदिन)
मैसूर-यशवंतपुर एक्सप्रेस (प्रतिदिन)
कोरापुट-राऊरकेला एक्सप्रेस (प्रतिदिन)
आगरा-अजमेर इंटरसिटी सुपरफास्ट (प्रतिदिन)
मुंबई-जोधपुर-बीकानेर सुपरफास्ट (सप्ताह में दो दिन)
आगरा-लखनऊ जंक्शन इंटरसिटी (प्रतिदिन)
हापा-तिरूनवेल्ली सुपरफास्ट (सप्ताह में दो दिन)
ग्वालियर-भोपाल इंटरसिटी (सप्ताह में 5 दिन)
कन्याकुमारी-रामेश्वरम एक्सप्रेस (सप्ताह में तीन दिन)
हावड़ा-हरिद्वार सुपरफास्ट (सप्ताह में 5 दिन)
वाराणसी-जम्मूतवी सुपरफास्ट (प्रतिदिन)
गोरखपुर-मुंबई सुपरफास्ट (प्रतिदिन)
नई दिल्ली-गुवाहाटी राजधानी एक्सप्रेस (साप्ताहिक)
बीरवाल-मुंबई लिंक सर्विस (प्रतिदिन)
रांची-पटना जनशताब्दी एक्सप्रेस (प्रतिदिन)
झांसी-छिंदवाड़ा एक्सप्रेस (सप्ताह में दो दिन)
मुंबई-जोधपुर एक्सप्रेस (साप्ताहिक)
जमालपुर-गया पैसेंजर (प्रतिदिन)
झाझा-पटना एमईएमयू (प्रतिदिन)
कानपुर-नई दिल्ली शताब्दी एक्सप्रेस (सप्ताह में 6 दिन)
भोपाल-लखनऊ-प्रतापगढ़ सुपरफास्ट (साप्ताहिक)
लखनऊ-रायबरेली-बेंगलूरू सुपरफास्ट (साप्ताहिक)
शिमोगा-बेंगलूरू इंटरसिटी एक्सप्रेस (प्रतिदिन)
मदुरै-चेन्नई (सप्ताह में दो दिन)
गुवाहाटी-न्यू कूचविहार एक्सप्रेस इंटरसिटी (प्रतिदिन)
बल्लूरघाट-न्यू जलपाईगुड़ी एक्सप्रेस (प्रतिदिन)
अलीपुरद्वार-न्यू जलपाईगुड़ी एक्सप्रेस इंटरसिटी (प्रतिदिन)
धरमनगर-अगरतल्ला फास्ट पैसेंजर (प्रतिदिन)
रेवाड़ी-फुलेरा पैसेंजर (प्रतिदिन)
शोरानूर-नीलामबूर रोड पैसेंजर (प्रतिदिन)
कोयम्बटूर-शोरानूर पैसेंजर (प्रतिदिन)
मथुरा-कासगंज पैसेंजर (प्रतिदिन)
फरक्का-कटवा-अजीमगंज-नवद्वीपधाम एक्सप्रेस (प्रतिदिन)
बेंगलूरू-कूचुवेली सुपरफास्ट (साप्ताहिक)
कोलकाता-रामपुरहाट एक्सप्रेस (प्रतिदिन)
न्यू जलपाईगुड़ी-दीघा एक्सप्रेस (साप्ताहिक)
पुरूलिया-हावड़ा एक्सप्रेस (सप्ताह में दो दिन)
कोलकाता-बीकानेर एक्सप्रेस (साप्ताहिक)
********************
12 नॉन स्टॉप ट्रेनों की सौगात
1 नई दिल्ली-जम्मूतवी (प्रतिदिन)
2 हावड़ा-मुंबई (सप्ताह में दो दिन)
3 मुंबई-अहमदाबाद (सप्ताह में तीन दिन)
4 चेन्नई-दिल्ली (सप्ताह में दो दिन)
5 नई दिल्ली-लखनऊ (सप्ताह में तीन दिन)
6 दिल्ली-पुणे (सप्ताह में दो दिन)
7 हावड़ा-दिल्ली (सप्ताह में दो दिन)
8 नई दिल्ली-इलाहाबाद (सप्ताह में तीन दिन)
9 सियालदह-नई दिल्ली (सप्ताह में दो दिन)
10 कोलकाता-अमृतसर (सप्ताह में दो दिन)
11 भुवनेश्वर-दिल्ली (साप्ताहिक)
12। एर्नाकुलम-दिल्ली (साप्ताहिक)
*****************
27 ट्रेनों का विस्तार
1. बेंगलुरू-मैंगलोर का कन्नूर तक विस्तार
2. अंडाल-सैंथिया का रामपुर हाट तक
3. झांसी-बैरकपुर का कोलकाता तक
4. मदुरै-जम्मूतवी का तिरूनलवेल्ली तक
5. हैदराबाद-उस्मानाबाद का पुणे तक
6. तिरूवनंतपुरम-एर्नाकुलम का कोझीकोड तक
7. मैसूर-तिरूपति का चामराज नगर तक
8. सियालदाह-नई दिल्ली का अमृतसर तक
9. रांची-अलीपुरद्वार का गुवाहाटी तक
10. पोरबंदर-बापूधाम-मोतीहारी का मुजफ्फरपुर तक
11. जबलपुर-भोपाल एक्सप्रेस का इंदौर तक
12. एर्नाकुलम-तिरूचरापल्ली का नागौर तक
13. हावड़ा-आगरा कैंट चम्बल एक्सप्रेस का मथुरा तक
14. कोलकाता-मुर्शिदाबाद हजारद्वारी एक्सप्रेस का लालगोला तक
15. मुंबई-जयपुर एक्सप्रेस का दिल्ली तक
16. गोरखपुर-भिवानी का हिसार तक
17. मैंगलोर-चेन्नई का पुड्डुचेरी तक
18. नागपुर-गया दीक्षाभूमि एक्सप्रेस टु छत्रपति शाहूजी महाराज टर्मिनल कोल्हापुर तक एक तरफ तथा धनबाद दूसरी तरफ
19. बंगलौर-हुबली इंटरसिटी का धारवाड़ तक
20. रायपुर-भुवनेश्वर का पुरी तक
21. पाराद्वीप-भुवनेश्वर का पुरी तक विस्तार
22. पुरी-किंडूझारगढ़ का बारबिल तक विस्तार
23. मुंबई-कानपुर उद्योगनगरी एक्सप्रेस का प्रतापगढ़ तक
24. प्रतापगढ़-रायबरेली पैसेंजर का लखनऊ तक
25. हावड़ा-भुवनेश्वर धौली एक्सप्रेस का पुरी तक
26. वाराणसी-लखनऊ का कानपुर तक
27. सियालदाह-जयपुर का अजमेर तक विस्तार
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Wednesday, July 1, 2009

"कहीं फिर न फैले नफरत की आग"


कॉमन मैन की चिंता

अंतत: 17 साल और 46 एक्सटेंशन (विस्तार) के बाद लिब्रहान आयोग ने अपनी रिपोर्ट आखिरकार सरकार को सौंप ही दी। हम तो भूल ही चुके थे कि बाबरी विध्वंस और अयोध्या राम मंदिर जैसा कुछ बवाल भी इस देश में हुआ था। लेकिन लिब्रहान ने उसकी याद दिला दी और अयोध्या का जिन्न एक बार फिर बाहर आ गया. .....

छह दिसंबर 1992, यानि पूरे देश को धार्मिक और राजनीतिक नफरत की आग में झोंकने वाला जिन्न। वैसे यह जिन्न इस बार जून के अंतिम दिवस पर बाहर निकला और सरकार के हाथों में समा गया और संसद में पेश होने के बाद अपना असर दिखाने की तैयारी कर रहा है. वैसे इस रिपोर्ट को 31 मार्च से पूर्व ही आने की उम्मीद थी लेकिन सर पर खड़े चुनाव ने कांग्रेसी रणनीतिकारों को चिंतन में डाल दिया. उन्हें भय था कि कहीं रिपोर्ट आ गयी और इसका लाभ भाजपा को मिल गया तो ......। यही कारण है कि लिब्रहान को तीन और अधिक महीने दे दिये गये. अब यह समय लीपापोती/दोषारोपण के लिए रहा हो या किसी और कारण से इसका पता तो तब चलेगा जब यह संसद में पेश होगा लेकिन,

यह भारत है और यहां कत्ल करने वाला तुरंत हिरासत में ले लिया जाता है लेकिन हजारो लोगों की जान लेने वाला सत्ता में बैठकर देश चलाता है। अपने आरोपों को आयोगों के हवाले कर देता है और फिर उसे अपनी अंगुलियों पर नचाता है. जिस देश का प्रधानमंत्री आयोग द्वारा दोषी ठहराया जाता है उस पर भी आरोप तभी तय होता है जब वह इस दुनिया से विदा ले लेता है. सामूहिक हत्याओं के ऐसे आरोपी बड़े नेता कहे जाते हैं और अपने स्वार्थ के लिए हत्या करने वाले शिबू सोरेन जैसे लोग सजा पाने के बाद जमानत पर छूटते हैं और फिर मुख्यमंत्री तक बन जाते हैं.

अब इस रिपोर्ट के पेश होने के बाद कॉमन मैन इस चिंता में डूब गया होगा कि इन 17 सालों में विवादों/धर्मों के पुल के नीचे से इतना पानी गुजर चुका था कि बाबरी विध्वंस जैसी चीजें जेहन से उतर चुकी थीं, अब एक फिर मुंह बाये उठ खड़ी हो गयी। राजनेताओं को अभी यह नहीं पता कि इस रिपोर्ट में क्या है, कौन दोषी है और किसको बचाये जाने का प्रयास किया गया है और भी न जाने क्या-क्या.........? लेकिन बयानों का सिलसिला कुछ ऐसा चला कि कॉमन मैन टेंशन में आ गया. ऐसा न हो कहीं फिर से देश नफरत की आग में न झोंक दिया जाय..........,

किसी ने कहा "मैं फांसी पर चढ़ने के लिए तैयार हूं" तो किसी को बाबरी विध्वंस पर गर्व होता है। इन आलोचनाओं और बिना कुछ तथ्य सामने आये ही बौरा-बौरा कर गर्व की अनुभूति और फांसी पर चढ़ने में डर नहीं जैसा बयान देने का मकसद इतना भर है कि इस मुद्दे को इतना उछाल दिया जाए कि उनकी ओर उठने वाली अंगुलियों का रूख खुद ब खुद दूसरी ओर मुड़ जाए। अयोध्या के नाम पर इस देश में पहले ही काफी नफरत बोई जा चुकी है। अब इस नाम पर नफरत के किसी नए अध्याय की जरूरत इस महादेश को बिल्कुल भी नहीं है। आयोग की रिपोर्ट पर जो कुछ भी दो वह संविधान के दायरे में हो, कानून के दायरे में हो। रिपोर्ट को लेकर राजनीतिक रोटियां सेकने की इजाजत किसी को भी नहीं होनी चाहिए।

और वैसे भी, आप फांसी पर चढ़ें या आपको गर्व हो, इससे आम आदमी को क्या, उसे तो आप उसकी जिंदगी जीने के लिए स्वतंत्र छोड़ दीजिए....... आप बेशक फांसी पर चढ़ जायें लेकिन कॉमन मैन को नफरत की आग में तो मत धकेलिए.........., आपको गर्व होता है तो हो, कॉमन मैन को तो इस बात पर गर्व होता है कि एक परंपरावादी परिवार की मुस्लिम लड़की संस्कृत में टॉप करती है ( केरल के कोल्लम के सस्थामकोट्टाह में देवासोम बोर्ड के एक कॉलेज की 21 साल की छात्रा रहमत का कहना है कि संस्कृत और वेदांत हमारी राष्ट्रीय संस्कृति का प्रतीक हैं।), क्या हम देश की उपलब्धियों पर गर्व नहीं कर सकते........ या फिर हमें कॉमन मैन होने का खामियाजा भुगतना पड़ेगा.........।

हमारे नेताओं को क्या फर्क पड़ता है कि कलुआ भूखमरी का शिकार हो सिधार गया, दोपहर भोजन योजना में देश के भविष्य को खिलाये जाने वाले खाने में छिपकली मिलता हो, पानी के लिए करोड़ो फूंक दिये जाने के बाद भी पानी के लिए लोग खून के प्यासे हो जायें......... उन्हें चिंता है तो इस बात की कि वह किस तरह से किसी भी मुद्दे का फायदा उठा सकें और राजनीतिक गोटियां सेंक सकें, देश जाये चूल्हे भाड़ में और देश कॉमन मैन का ही तो है........... इन नेताओं का नहीं........... सो कॉमन मैन जाये चूल्हे भाड़ में...........,

लेकिन कॉमन मैन तो यही चाहता है कि इस रिपोर्ट के बाद हमारे आका उसे फिर से नफरत की आग में न झोंक दें..........


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Monday, June 22, 2009

शायद मेरी समझ जरा कमजोर है...

1) 21 जून को भारतीय बैडमिंटन खिलाड़ी सायना नेहवाल ने इंडोनेशियाई ओपन सुपर सीरीज बैडमिंटन टूर्नामेंट जीतकर इतिहास रचा। किसी भी सुपर सीरीज बैडमिंटन टूर्नामेंट में खिताब जीतने वाली पहली भारतीय बनीं।
2) 21 जून को ही पाकिस्तान ने श्रीलंका को हराकर ट्वेंटी-20 वर्ल्डकप का खिताब जीता और,
3) 21 जून को ही इंग्लैंड ने न्यूजीलैंड को हराकर ट्वेंटी-20 महिला वर्ल्डकप का खिताब अपने नाम किया।
दरअसल मेरी कोशिश यह ध्यान दिलाने की नहीं है कि 21 जून को खेल की कौन-कौन सी गतिविधियां रहीं, मेरी कोशिश तो कुछ और ही पहलू पर ध्यान दिलाने की है। रविवार को यह सभी खबरें किसी भी अन्य खबरों से अधिक महत्वपूर्ण रहीं और जैसी की उम्मीद थी सभी अखबारों ने इन खबरों को अपने पहले पन्ने पर जगह दी। खेल प्रेमी होने के बावजूद सोमवार को अखबारों में छपी इन खबरों को देखकर दिल बाग-बाग हो गया हो, ऐसा नहीं है। सभी अखबारों ने अपनी नीतियों और महत्व के हिसाब से ही इन खबरों को स्थान दिया होगा, ऐसा मेरा सोचना है। मैं गलत भी हो सकता हूं लेकिन भोपाल में होने के कारण भोपाल के अखबारों में छपी इन खबरों पर नजर डालें तो मन कुछ उदास सा हो गया।
यहां के कुछ अखबारों ने इन खबरों का जिस तरह से प्रस्तुतीकरण किया उससे मेरा खेलप्रेमी ह्रदय कुछ निराश सा हो गया। चूंकि सभी अखबार अपने देश के ही हैं और उसके पाठकों में भी लगभग सभी हिंदुस्तानी ही हैं ऐसे में खबर वह महत्वपूर्ण थी जिसमें भारतीय संदर्भ और उपलब्धि छिपी हुई थी। जी हां, यहां बात सायना नेहवाल की हो रही है। सायना की उपलब्धि किसी भी मायने में अन्य दो खबरों से कम नहीं थीं, बल्कि अधिक ही थीं। ऐसे में एक लीडिंग अखबार का पहले पन्ने पर पाक के चैंपियन बनने की खबर को अधिक कवरेज देना और सायना के सयाने प्रदर्शन को बेहद कम जगह देना सालने वाला रहा।
कहीं इसलिए तो नहीं कि सायना का यह प्रदर्शन क्रिकेट नहीं बैडमिंटन के लिए आया और व्यावसायिक नजरिए से बैडमिंटन क्रिकेट से कहीं अधिक पीछे है?
यही नहीं उक्त अखबार ने खेल पन्ने पर भी सायना को अन्य खबरों से कम स्पेस देकर खेल प्रेमियों को निराश ही किया। आखिर जिस उपलब्धि को प्रकाश पादुकोण और पी गोपीचंद के ऑल इंग्लैंड बैडमिंटन टूनार्मेंट की खिताबी जीत के बराबर माना जा रहा हो और जैसा किसी अन्य भारतीय ने पहले नहीं किया रहा हो, उसकी फोटो वर्ल्डकप लिए पाकिस्तान के शाहिद अफरीदी, यूनिस खान, शोएब मलिक से कम महत्वपूर्ण कैसे हो सकती है? मुझे समझ नहीं आया, संभवत: मेरी समझ जरा कमजोर है। एक अन्य अखबार ने भी ऐसा ही किया और बेहद निराशाजनक तरीके से, जिसमें सायना की खबर ढूंढने पर मिली और पाक जीत की खबर एकदम सामने ही नजर आई।अपनी इस निराशा के बीच एक अन्य अखबार ने पहले पन्ने का जो ले-आउट दिया, उसकी चर्चा न करुं तो शायद ज्यादती होगी. उक्त अखबार ने सायना की जो फोटो प्रकाशित की है उसमें वह तिरंगा लहरा रहीं हैं। एक खेलप्रेमी को वह फोटो बेहद आकर्षक लगी और उसको दिया गया उचित स्थान भी. इस अखबार ने भी पाक जीत की और इंग्लैंड की जीत की फोटो पहले पन्ने पर ही दी और बकायदा पैकेज बनाकर लेकिन उसमें गंभीरता दिखी। उसने सायना की तिरंगे वाली फोटो के बैकग्राउंड के रुप में पाक के चैंपियन बनने की खबर और इंग्लिश महिलाओं की जीत की खबर लगाई। इस फोटो से मेरे खेल मन को कुछ ऐसा संदेश मिला कि "सबसे आगे होंगे हिंदुस्तानी"
मुझे ऐसा लगता है कि जिस खिताब को जीतकर सायना ने देश को गौरवान्वित किया हो, वह खबर अन्य खबरों से छोटी कैसे हो सकती है. और यही वजह है कि विभिन्न अखबारों में प्रकाशित इन खबरों को देखकर जब मन विचलित हुआ तो अपने दिल की बात लिख दी. हालांकि लिखते समय मुझे बराबर यह लगता रहा कि मेरी समझ शायद कमजोर है, फिर भी लिखता गया...


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Sunday, June 21, 2009

सायना का "सयाना' प्रदर्शन


  • इंडोनेशिया ओपन सुपर सीरीज बैडमिंटन खिताब जीता
  • सुपर सीरीज जीतने वाली पहली भारतीय बनीं

क्रिकेटिया चकाचौंध से इतर जब किसी अन्य खेलों में भारतीय उपलब्धि की कोई खबर आती है तो वह हवा के ठंडे झोंके के समान होती है और दिन को सुकूं का अहसास करा जाती है. बीजिंग ओलंपिक में मुक्केबाज विजेंदर कुमार और पहलवान सतीश कुमार का कांस्य पदक जीतना ऐसे ही एक झोंके के समान आया था और खेल प्रशंसकों को पहली बार क्रिकेट से अलग दूसरे खेलों के बारे में उपलब्धियों का बखान करते भी सुना. अब एक बार फिर ऐसी ही खबर आई है जब सीना गर्व से चौड़ा हो गया है. बीजिंग ओलंपिक की बैडमिंटन स्पर्धा में अपने प्रदर्शन से दुनिया को चकाचौंध करने वाली भारतीय शटलर सायना नेहवाल ने सुपर सीरीज बैडमिंटन टूर्नामेंट इंडोनेशियाई ओपन पर खिताब जमा लिया है.
वैसे तो सायना का सुपर सीरीज का यह पहला खिताब है लेकिन इतिहास रचते हुए आया. आज तक किसी भी भारतीय ने कभी सुपर सीरीज खिताब पर कब्जा नहीं जमाया था लेकिन सायना ने यह कर दिखाया. सायना का यह सयाना प्रदर्शन उस समय आया जब देश के खेल प्रशंसक माफ कीजिएगा, क्रिकेट प्रशंसक निराशा और हताशा के शिकार थे. दरअसल क्रिकेट से उम्मीद लगाये इन दर्शकों को उम्मीद थी कि भारतीय टीम ट्वेंटी-20 वर्ल्ड का खिताब बरकरार रखने में सफल रहेगी लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ और इस टूर्नामेंट के सुपर आठ चरण से टीम इंडिया बेआबरु होकर बाहर निकली. इस चरण में वह एक भी मुकाबला जीत नहीं सकी और लीग चरण में बांग्लादेश और हालैंड की टीम को ही हरा सकी. इस बेहद कमजोर प्रदर्शन ने प्रशंसकों को पूरी तरह से निराश कर दिया था लेकिन आज रविवार का दिन देश के लिए न सिर्फ उपलब्धियां लेकर आया बल्कि इन प्रशंसकों को एक ठंडी हवा का झोंका भी दे गया. सायना की इस उपलब्धि को ऑल इंग्लैंड चैंपियन प्रकाश पादुकोण तथा सायना के मौजूदा कोच पुलेला गोपीचंद की उपलब्धि के समकक्ष आंका जा सकता है. सायना की यह उपलब्धि भारतीय खेल के इतिहास में मील का पत्थर है और इसे स्वीकार करते हुए भारतीय बैडमिंटन संघ ने सायना को दो लाख रुपये का पुरस्कार देने की घोषणा की है.
एक और बात,
सायना नेहवाल अपने पिता और वैज्ञानिक डॉ. हरवीर सिंह के काफी क्लोज्ड हैं और उनकी यह उपलब्धि खास दिन पर आई. आज फादर्स डे है और इससे बेहतर तोहफा किसी पिता के लिए और क्या हो सकता है. सायना की उपलब्धि से गौरवांन्वित महसूस कर रहे उनके पिता हरवीर ने इसे देश के लिए विशेष क्षण करार दिया और कहा कि उन्हें अपनी बेटी पर गर्व है. हरवीर जी आप ही को क्यों, पूरे देश को सायना की इस उपलब्धि पर गर्व है.


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Monday, June 15, 2009

"समरसता" कैसी और कैसी "शर्म"

(सुधीर कुमार)
उत्तर प्रदेश में एक दलित नेता हैं जो कि खुद को "दलितों का मसीहा" कहती हैं और प्रदेश की सत्ता के सिंहासन पर विराजमान हैं। जी हां, बात बहन बहन मायावती की ही हो रही है. स्वर्गीय कांशीराम ने दलितों को समाज की मुख्यधारा से जोडने जिस बहुजन समाज पार्टी (बसपा) का गठन किया, उसके वर्तमान कार्यरुप को देखकर तो कांशीराम की आत्मा क्या महसूस करती होगी यह तो वही जानें, लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि मायावती ने उनकी नीतियों पर पलीता लगाने का काम ही किया है. खैर बात बीएसपी की मायावी नीतियों की नहीं बल्कि "समरसता दिवस" और "शर्म दिवस" की.
दरअसल 19 जून को कांग्रेस महासचिव और देश के युवा नेता राहुल गांधी का जन्मदिवस है. कांग्रेसी जहां इसे समरसता दिवस के रुप में मना रहे हैं वहीं मायावती और उनकी बसपा ने इसी तारीख से शर्म करो अभियान शुरु करने का ऐलान किया है. दरअसल बसपा सुप्रीमो मायावती को लगता है कि "समरसता दिवस" से प्रदेश में भाईचारा टूटेगा और जातिवाद को बढ़ावा मिलेगा इसलिए ऐसे दलों (स्पष्ट रुप से कांग्रेस की ओर है माया का इशारा) को शर्म करो-शर्म करो कहकर हतोत्साहित किया जाएगा। इसके लिए मायावती ने 19 जून को देशव्यापी जागरूकता अभियान चलाने का फैसला किया। अब शर्म किस बात की यह तो माया ही जानें लेकिन इससे समरसता शब्द स्वयं को लघु और विभाजक समझने लगा है. माया की शर्मिंदगी अगर समरसता दिवस को लेकर है तो शर्म किसको आना चाहिए, इसका जवाब माया से मांगा जाना चाहिए. मायावती तो कहती हैं कि कांग्रेस और बीजेपी के नेता दलित वर्ग का हितैषी बनने का ढोंग कर रहे हैं। चलिए माया ही सही, तो फिर वह बताएं कि यूपी की सत्ता पर काबिज होने के अलावा दलित वर्ग से उनका क्या हित रहा और वह उस वर्ग के प्रति कितनी हितैषी रहीं? कितने दलितों का उद्धार उन्होंने किया और कितने दलितों ने खुद को मजबूत महसूस किया. आज भी यूपी के जिलों में दलितों पर अत्याचार की कहानी आम है, बांदा, झांसी, हमीरपुर से लेकर पूर्वांचल के गांवों तक नजर फेर डालिए. कहां पर दलित समाज की मुख्य धारा से जुडा हुआ नजर आया.
और, मायावती को समरसता दिवस मनाने पर शर्म आती है तो यह शर्म उनको तब क्यों नहीं आई जब यूपी को समाजवादी पार्टी समेत अन्य दलों के क्रिमिनल बैकग्राउंड वाले नेताओं को सत्ता से बाहर करने के लिए विधानसभा चुनावों के दौरान चलाये गये अभियान कि " चढ़ गुंडन की छाती पर, मुहर लगाओ हाथी पर" की सफलता के बाद "वे सभी गुंडे" एक-एक कर बसपा में नजर आते गये. उनको तो शर्म तब भी नहीं आई जब जनता ने यह कहना शुरु कर दिया कि "चढ़ गये गुंडन छाती पर, मुहर लगाकर हाथी पर।"
मायावती को शर्म तब भी नहीं आती जब वह सड़को से अपना काफिला गुजरने से पूर्व सडकों को हजारो लीटर पानी से धुलवाती हैं. कई जगह से तो यह भी सुनने को मिला कि सड़कें धुलवाने के लिए मिनरल वॉटर तक का प्रयोग किया गया. यानि जिस जनता ने उन्हें गद्दी पर बैठाया, उससे उन्हें इन्फेक्शन का खतरा था.
यही नहीं, हर बार मुख्यमंत्री बनने के बाद मायावती का गुमान कुछ इस कदर कुलाचें मारता रहा कि वरिष्ठ आईएएस अधिकारियों को मीटिंग के दौरान अपनी कुर्सी से नीचे ही बैठने पर मजबूर किया. यह नीचे बैठना दरी या केवल फर्श पर बैठना ही रहा. उनका खौफ ऐसा रहा कि आईएएस अधिकारी भी हाथ जोडे नजर आये. मायावती को तब शर्म नहीं आई और अब आ रही है, शर्म भी किससे, समरसता से, मानो इस पर केवल उन्हीं का अधिकार है. अगर यही बात है तो मायावती में कब दिखी/दिखेगी समरसता.
* गांधी को भी नहीं बख्शा
कांग्रेस और राहुल गांधी के खिलाफ 19 जून से अपने शर्म करो अभियान की शुरुआत के लिए मायावती की पार्टी ने जो पर्चे जारी किए हैं, उस पर माया को शर्म नहीं आती. इन पर्चों में मायावती ने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को नाटकबाज घोषित कर दिया। मायावती शायद यह भूल गयी हैं कि यह गांधी ही थे, मायावती नहीं- जिन्होंने ऊंच-नीच को खत्म करने के लिए खुद अपने हाथ में झाड़ू उठाकर शौचालय तक साफ किए थे। और, जिस युग में गांधी ने यह काम किया था उस युग में ऐसा सोच पाना भी आम हिन्दुस्तानी के लिए संभव नहीं था। मायावती जिस भीमराव अंबेडकर की बात करती हैं, कुछेक अपवादों को छोड़कर वह गांधीवाद के बड़े समर्थक माने जाते रहे हैं. ऐसे में मायावती की आलोचना क्या अंबेडकर की आलोचना भी नहीं है.
वैसे तो गांधी जी से मायावती का वैर पुराना है। लेकिन इस बार की टीस कुछ और ही है। जिस दलित वोट बैंक के सहारे मायावती जाति की राजनीति करती रही हैं, लोक सभा चुनाव के नतीजों ने यह साफ कर दिया है कि उस वोट बैंक का रूझान फिर से कांग्रेस की ओर बढ़ने लगा है। अपने हाथों से इस वोट बैंक के खिसक जाने की आशंका से मायावती हतप्रभ सी रह गई हैं। और यही उन्हें गांधी के गिरेबान को छूने की हिमायत करने को मजबूर कर रही है। गांधी पर कीचड़ उछालने वाली मायावती शायद यह भूल गयी हैं कि सीबीआई और सुप्रीम कोर्ट में जो भी मामले उन पर चल रहे हैं वे समाज सेवा के नहीं ही हैं।
- अब बात राहुल गांधी की
बसपा के शर्म दिवस के मूल में राहुल गांधी का दलित लोगों के घर में जाकर खाना खाना या रात बिताना है। हो सकता है यह राहुल गांधी का नाटक हो जिसे वह लंबे समय से बिना रुकावट के कर रहे हैं लेकिन केक वाले कल्चर को छोड़कर दलित के घर खाना खाने का नाटक करने की हिम्मत राहुल गांधी के पास है तो सही। क्या मायावती ने कभी ऐसा किया है. शायद वह ऐसा सोच भी नहीं सकतीं. आज मायावती सबसे अधिक वैभवशाली हैं, उन्हें जन्मदिन में करोड़ों के तोहफे मिलते हैं जो उन दलित वर्ग से एकत्रित किए गये हैं, जिसकी वह मसीहा कहलाना पसंद करती हैं. यह रकम इन वर्गों के कई हफ्तों तक पेट पालने के लिए पर्याप्त होती, क्या इस रकम का उपयोग कभी दलित वर्ग के लिए हुआ।
ऐसा लगता है कि मायावती ने अपना विवेक खो दिया है. माया के पास सब कुछ हो सकता है लेकिन पैसों से विवेक नहीं खरीदा जा सकता। वह दलित की बेटी को प्रधानमंत्री नहीं बनने दिया का आरोप लगाकर अपने वोट बैंक को भावुक कर सकती हैं लेकिन वास्तविकताओं से मुंह मोड़ना इस दलित की बेटी को गर्त की ओर ही ले जायेगा. मायावती को अब अपने पत्थरों की मूर्ति से अधिक चिंता उसकी करनी चाहिए जिसने उन्हें ऐसा करने की ताकत दी है. और, राहुल गांधी का जन्मदिवस अगर समरसता दिवस के रुप में मनाने की घोषणा हुई है तो यह उनकी (वोटर) जीत है जिसने राहुल को इसका मौका दिया है. मायावती शर्म दिवस मनाने से ज्यादा उनकी चिंता करतीं तो शायद हकीकत को ज्यादा नजदीक से समझ सकतीं.


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Sunday, June 14, 2009

भारत सेमीफाइनल में पहुंच सकता है बशर्ते...

इसका जवाब हां में तो है मगर... । वास्तव में पहले टी-20 वर्ल्डकप क्रिकेट की चैंपियन टीम के लिए इंग्लैंड में चल रहे 2009 टी-20 वर्ल्डकप में हालात बिल्कुल वैसे ही हो चुके हैं जैसा कि 2007 में कैरेबियाई द्वीप समूह में संपन्न हुए वर्ल्ड कप में थे। फिलहाल टीम इंडिया को अगर 2009 के वर्ल्ड कप सेमीफाइनल में पहुंचना है तो उसे अब सुपर आठ के अपने दोनों मैच जो कि इंग्लैंड और दक्षिण अफ्रीका से होने हैं, हर हाल में जीतने होंगे। आज भारत का मुकाबला इंग्लैंड की टीम से होगा और मंगलवार को दक्षिण अफ्रीका से। चूंकि भारत ने वेस्टइंडीज के हाथों सुपर आठ का अपना पहला मैच गंवा दिया था, इसलिए टीम इंडिया अगर इन दोनों मैचों को जीतती है तभी उसके लिए सेमीफाइनल के दरवाजे खुल सकते हैं।
लेकिन यह जरुरी भी नहीं है कि इन दोनों मैचों को जीतने के बाद टीम इंडिया सेमीफाइनल में पहुंचे ही।
मान लीजिए अगर टीम इंडिया ने इंग्लैंड और दक्षिण अफ्रीका-दोनों को हरा दिया और वेस्टइंडीज ने इंग्लैंड को पटकनी दे दी तो ऐसी सूरत में भारत, दक्षिण अफ्रीका और वेस्टइंडीज, तीनों के खाते में दो-दो जीत होंगी। ऐसे में ग्रुप 'ई' से सेमीफाइनल में जाने वाली टीम का फैसला रन रेट के आधार पर होगा। वेस्टइंडीज से मैच हारकर वर्तमान टी-20 चैंपियन ने खुद को मुश्किल में डाल दिया है। ऐसे में अब भारत को आखिरी चार में जाने के लिए अपने बाकी बचे दोनों मैच तो जीतने ही होंगे, साथ ही ग्रुप 'ई' में दूसरी टीमों के मैचों पर भी भारत की किस्मत निर्भर करेगी। अपने दोनों मैच जीतने के अलावा टीम इंडिया को वेस्टइंडीज के इंग्लैंड से हारने की दुआ करनी होगी क्योंकि अगर ऐसा हुआ तो वेस्टइंडीज और इंग्लैंड एक-एक जीत के साथ वर्ल्डकप से बाहर हो जायेंगी।


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Saturday, June 13, 2009

यूपीए और हिंदी से उसका इत्तेफाक

सुधीर कुमार
आप् चाहे तो ट्रैफिक नियम तोड दीजिए और पकडे जाने पर थानेदार के सामने धाराप्रवाह अंग्रेजी बोल दीजिए। अब भले ही वह प्राइमरी कक्षा में पढा कुत्ते/बिल्ली पर निबन्ध ही क्यों न हो, यकीन मानिए। पुलिसिया रौब आपसे डर जाएगा और आपको छोड देगा। वास्तव में आज भी हमारे देश में इस बात को मानने वाले लोगों की कमी नहीं जो समझदार उसे ही मानते हैं जो अंग्रेजी जानता है। और, देश की सरकार भी संभवत: अंग्रेजी से ही दिल का इत्तेफाक जोडती है, अगर नहीं तो भी कम से कम हिंदी से तो शायद नहीं ही जोडती. अगर ऐसा होता तो क्या यूपीए सरकार के नुमाइंदो (मंत्री ) में हिंदी भाषियों या हिंदी भाषी क्षेत्र की यूं उपेक्षा नहीं होती. देश में उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश , बिहार, झारखंड, उत्तरांचल, छत्तीसगढ प्रमुख हिंदीभाषी प्रदेश हैं. लेकिन इस बार इनकी उपेक्षा हावी है. हाल फिलहाल तक मंत्रिमंडल को लेकर मची खींचतान के बीच इन प्रदेशों को मिले मंत्रियों की संख्या पर एक नजर डालते हैं :-
* यूपीए सरकार के पिछले दौर में मंत्रिमंडल पर छाए बिहार से फिलहाल न तो कोई कैबिनेट मंत्री है, न कोई राज्यमंत्री। कुल प्रतिनिधित्व शून्य। हालत यह हुई कि इस बार बिहार में जब ट्रेनें जलाने का कई दिन लंबा सिलसिला शुरू हुआ तो लगा ही नहीं कि केंद्र सरकार की इस सबसे बड़ी संपदा की चिंता करने वाला इस राज्य में कोई है।
* उत्तर प्रदेश से कैबिनेट मंत्री एक भी नहीं, राज्यमंत्री पांच। इनमें से भी दो के पास स्वतंत्र प्रभार। दो ऐसे हैं जो पहली बार ही संसद पहुंचे हैं।
* झारखंड और उत्तरांचल से एक-एक राज्यमंत्री, छत्तीसगढ़ का मंत्रिमंडल में प्रतिनिधित्व शून्य।
* मध्य प्रदेश से दो कैबिनेट मंत्री और एक राज्यमंत्री, जबकि राजस्थान से इसका उलटा, यानी एक कैबिनेट मंत्री और दो राज्यमंत्री।
* हिंदीभाषी कहलाने वाले तीन अपेक्षाकृत छोटे राज्यों हरियाणा, हिमाचल प्रदेश और दिल्ली का केंद्रीय मंत्रिमंडल में प्रतिनिधित्व ठीकठाक ही कहा जा सकता है,
* बीमारु राज्यों की अनदेखी : कभी बीमारू नाम से तिरस्कृत- बाकी सात राज्यों उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान, झारखंड, छत्तीसगढ़ और उत्तरांचल का केंद्र सरकार से रिश्ता नाम का ही जान पड़ता है। ये राज्य पूरे हिंदी क्षेत्र का कहीं बड़ा हिस्सा निर्मित करने वाले हैं. पिछली यूपीए सरकार में इन राज्यों से चार या पांच हाई-प्रफाइल कैबिनेट मंत्रियों समेत कुल 24 मंत्री हुआ करते थे, जबकि इस बार मात्र 15 मंत्री सरकार की शोभा बढ़ा रहे हैं जिनमें 3 कैबिनेट मंत्री, 2 स्वतंत्र प्रभार वाले राज्यमंत्री और बाकी 8 राज्यमंत्री हैं। इनमें भी हाई प्रफाइल सिर्फ कमलनाथ और खींचतान कर सी.पी. जोशी को माना जा सकता है।
* अब जरा अन्य राज्यों से आये मंत्रियों की संख्या पर नजर डालें तो होश ही उड जाते हैं. अकेले तमिलनाडु से 10, महाराष्ट्र से 9, पश्चिम बंगाल से 8 और केरल से 6 मंत्री।
* यानी लोकसभा में 149 सांसद भेजने वाले इन चार राज्यों से कुल 33 मंत्री और 209 सांसद भेजने वाले उन सात राज्यों से मात्र 15 मंत्री!
ऐसा नहीं है कि बीमारु राज्यों में यूपीए का प्रदर्शन खराब रहा हो. पिछली बार की तुलना में इन सातों राज्यों में यूपीए का चुनाव कुछ बेहतर ही गया है। 2004 में इस गठबंधन को यहां से कुल 59 सीटें मिली थीं, जो इस बार बढ़ कर 65 हो गई हैं। फिर सरकार में इन क्षेत्रों की हैसियत इस कदर कम हो जाने की वजह भला क्या हो सकती है? कहीं यह तो नहीं कि पिछली बार इन इलाकों में यूपीए का अर्थ कांग्रेस, आरजेडी और एलजेपी का गठबंधन हुआ करता था जबकि इस बार यह सिर्फ और सिर्फ कांग्रेस है? अगर ऐसा है तो फिर कांग्रेस के लिए यह और खतरनाक संदेश हो सकता है. इस हिंदीभाषी क्षेत्र की जनता ने कांग्रेस में अपना विश्वास जताया है तो कांग्रेस को भी इन राज्यों पर ध्यान देना चाहिए था. आने वाले समय में यह अनदेशी यूपीए खासकर इस देश में लंबे समय से सरकार चलाने की अनुभवी पार्टी कांग्रेस को भारी पड सकती है. या फिर कांग्रेस आज भी पूर्व की तरह इन बीमारू राज्यों की क्षेत्रीय आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए यहां नेहरू परिवार की उपस्थिति को ही पर्याप्त मानती है,
कहीं ऐसा तो नहीं है कि पार्टी और कई लोगों का राजनीतिक कद सिर्फ इसलिए नहीं बढ़ने देती कि आगे चलकर वे कहीं पार्टी पर परिवार के वर्चस्व को चुनौती न देने लगें?
अब फिर बात अंग्रेजी की. अंग्रेजी की खासियत यही है कि वह दुनिया भर की भाषाओं से छांट-छांट कर शब्द चुनती है और अपने भण्डार में शामिल कर लेती है। यानि कि वह विरोध का बिगुल या छल प्रपंच की राजनीति से परे है लेकिन शायद कांग्रेस या यूपीए नहीं. शब्दों का निर्माण किसने किया किसने बनाए हैं ये शब्द यह तो हमें पता नहीं, पर अंग्रेजी भाषा जिस तरह दुनिया भर के शब्द अपने खजाने में शामिल कर रही है उससे तो यही लगता है कि शब्दों को ढूंढने के लिए अच्छे गोताखोरों और शिकारियों की जरू रत होती है। उधर हिन्दी के क्या हाल होते जा रहे हैं। यह तो भला हो इस देश के करोडों लोगों का, जिन्होंने अपने दम पर हिन्दी को जिला रखा है, वरना हमारे हुक्मरानों और अफसरों ने तो हिन्दी को सौतन की बेटी बनाने में कसर नहीं रखी थी। आज भी यह कहने वालों की कमी नहीं कि अंग्रेजी ही इस देश का भला करेगी। कांग्रेसनीत यूपीए ने भी शायद इसी नीति पर चलने में विश्वास कर रही है. विदेशियों की तो यह मजबूरी है कि न चाहते हुए भी उन्हें भारत की आज तरफ देखना पड रहा है. और, भारत को बगैर हिन्दी के स्वीकार ही नहीं किया जा सकता। यही कारण है कि पूरी दुनिया में हाल के नस्लवादी हमलों के बावजूद भारतीयों की मेधा की पहचान पर किसी भी प्रकार का संकट नहीं आया है.
जबकि फिरंगियों/विदेशियों यहां तक कि नस्लवादी हमलों वाले देशों में भी भारतीय पहचान हिंदी के महत्व को समझ लिया गया है, हमारे भारतीय हुक्मरानों को कब यह सलीका आयेगा कि वे राष्ट्रभाषा हिन्दी और उस क्षेत्र को महत्व दें. काश किसी भी सरकार ने ऐसा कभी सोचा होता तो हम बीमारु राज्यों हमारे का रोना न रोकर आज आंध्रप्रदेश, गुजरात जैसे अहिंदीभाषी क्षेत्रों जैसी तरक्की से दो-चार होते.


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Wednesday, June 10, 2009

फिर भी कलावती गरीब ही रहेगी

आप कलावती को तो जानते ही होंगे? नहीं... तो राहुल गांधी को तो जरुर जानते होंगे. देखा आपके चेहरा खिल गया ना. मैं जानता था कि आप राहुल गांधी को जरुर जानते होंगे। तभी तो आपके चेहरे की रौनक बढ गयी लेकिन जिस कलावती को आप नहीं जानते उसे राहुल गांधी जरुर जानते हैं। यह वही कलावती हैं जो समाज के बेहद निम्न तबके/दलित वर्ग से आती है और इसी कलावती के घर पर भोजन कर राहुल गांधी ने कांग्रेस के चेहरे की मुस्कान लाने की कोशिश की और उनका यह प्रयास सुफल रहा जब 15वीं लोकसभा के लिए हुए चुनाव में कांग्रेसनीत यूपीए ने बाजी मार ली थी. चुनाव के बाद कांग्रेसनीत यूपीए की ताकत और मुस्कान तो बढी लेकिन नहीं बदली तो कलावती की किस्मत और उसके चेहरे की समयपूर्व झुर्रियां. आज भी उसके चेहरे पर गहन अवसाद की छाया नजर आती है जिसको राजनीति का राहुल रुपी तेज भी नहीं बदल सका.
खैर, बात कलावती की तो बतो दें कि वह महाराष्ट्र के एक जिले की रहने वाली बेहद गरीब महिला है। वैसे तो वह बडी नाम बन चुकी है क्योंकि उसकी चर्चा संसद में दो बडे राजनेताओं द्वारा जो की गयी। अब तो वह जाना पहचाना नाम बन चुकी है सो आपको पता होना चाहिए था. जाना पहचाना नाम बन जाने के बावजूद कलावती की किस्मत ने करवट नहीं बदली. वह भी तब जब संसद में पिछले साल राहुल ने कलावती का जिक्र कर भारत की गरीबी को रेखांकित किया था. ऐसा लगा था मानों अबकी बार कलावती और उस जैसे तमाम लोगों की गरीबी बस दूर हुई समझो. यही नहीं महिला आरक्षण पर चर्चा के दौरान भी लालू प्रसाद यादव ने कलावती, भगवती की चर्चा कर डाली. लालू ने इस बिल पर बोलते हुए कहा कि इसमें ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए जिससे कलावती जैसी करीब महिलाएं भी संसद में आ सकें.
फिलहाल तो कलावती दिल्ली में हैं और गरीबों के लिए न्याय की उम्मीद कर रही हैं। दरअसल गरीबी भोलेपन के साथ ही नजर आती है। कलावती का भोलापन भी देखिए, उसका मानना है कि राहुल ने जो विश्वास दिलाया था वह एक दिन पूरा होगा, भले ही अब तक जो वादे उससे किए गये थे उस पर रत्ती भर भी अमल न हुआ हो। यह गरीबी इतनी भोली होती है कि आश्वासनों के सहारे सैकडों वर्ष् गरीबी में ही उम्मीदी के दीये के साथ के साथ् जिंदगी काट लेती है और इसे देश के नेता बखूबी समझते हैं.

वादे हैं वादों का क्या
राहुल ने कलावती को घर दिलाने का वादा तो कर दिया था लेकिन न तो उचित दिशानिर्देश दिये गये और न ही उसकी स्थिति में कोई सुधार ही हुआ है। कलावती यानि आम जनता जो सरकार चुनती है ताकि उसकी समस्याएं सुलझाईं जा सकें, का मामला यह साबित करता है कि एक बडे नेता द्वारा किया गया वादा एक साल बाद भी पूरा नहीं होता. इसके पीछे नौकरशाही रवैये को दोषी ठहराया जाता है जो हर बात को फाइल दर फाइल आगे बढाता है. वास्तव में अगर कहीं कमी है तो प्रतिबद़धता की और राजनीतिक/प्रशासिनक सुचिता की.
कर्ज में डूबी कलावती जैसी आम जनता जब अधिकारियों के पास जाकर अपनी समस्या बताती है तो अधिकारी भी ढेर सारे वादे करते हैं लेकिन ये वादे जैसे पूरे होने के लिए होते ही नहीं। उसे वादे के मुताबिक न तो घर मिलते हैं न ही गांव के लिए स्वास्थ्य केंद्र, और तो और गांव के बच्चों के लिए अंग्रेजी स्कूल तो आज भी एक बडा सपना है।
वास्तव में कलावती सिर्फ एक महिला नहीं बल्कि देश की जनता का प्रतिनिधित्व करती है। उस जनता की जिसको हर पांच साल बाद लोक लुभावन नये नारों और वादों की घुट्टी पिलाई जाती है, उसको अचानक ही चांद की सैर और उन ख्वाबों को पूरा करने का सब्जबाग दिखाया जाता है, जो वह सैकडो वर्षों से देखता आ रहा होता है। भई मानना पडेगा इस राजनीतिक वायदों की घुट्टी को जिसको पीने के बाद आम जन धैर्य से अगले पांच सालों का इंतजार करती है, अगली बार यह घुट्टी पीने का।


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Tuesday, June 9, 2009

शायद मैं भटक गया हूं...

क्या तालिबान केवल पाकिस्तान में हैं और हम इससे वंचित हैं? शायद नहीं क्योंकि तालिबान एक विचारधारा है। एक ऐसी विचारधारा जो आधुनिकता से कोसों दूर किसी अंधेरी कोठरी में दम घुटने तक के लिए छोड़ जाती है। एक ऐसा अंधा कुंआ जिसमें सारी हकीकतों का गला घोट दिया जाता है। तालिबान एक ऐसा हथियार है जिसकी धार को तेजकर अमन-ओ-चैन का सिर कलम कर दिया जाता है। दकियानूसी सोच और नामर्दी की हद तक मर्दानगी दिखाने को अगर तालिबान कहा जाय तो कुछ गलत नहीं होगा। यह एक ऐसी सोच है जो विकास को न सिर्फ दूर से सलाम करती है बल्कि उसे सोच में आने से पहले ही दूर छिटक देती है। तालिबान को यह पसंद नहीं कि आवाम में एका रहे, खुशहाली पसंद लोगों के बीच माहौल जिंदादिली जैसा हो। उन्हें तो बस इससे मतलब है कि किस तरह से सीलन भरे कमरे के दमघोंटू माहौल में खुद का श्रेष्ठ (?) सत्ता की तरह से बनाये रखा जाय। दरअसल, जुल्म ढाने और बराबरी के हक की बात करने वालों को पंगु करने का उपकरण है तालिबान।
अभी हाल में मध्यप्रदेश के एक जिले में घोड़ी चढ़े दूल्हे को केवल इसलिए कथित उच्च वर्ग के ठेकेदारों और नुमाइंदों ने मरणासन्न स्थिति तक पीटा क्योंकि दूल्हा उनके वर्ग का नहीं था और घोड़ी चढ़ने की हिमाकत कर बैठा। मानों यह उसका हक न हो, कि वह एक सामान्य या निम्न तबके है कि उसका विरोध करने वाले उच्च तबके के थे और उन्हें इस बात की पूरी छूट थी कि भारतीय संविधान के आदर्शो की चिंदी-चिंदी कर डालें। किस बात का समाजवाद और कैसी आजादी। सोच भी क्या तालिबान से रत्ती भर भी कम। आज भी, जबकि हम चांद पर अपना अक्स छोड़ने की अंतिम प्रक्रिया में हैं, हमारे गांवों में अनुसूचित जाति/जनजाति वर्ग की महिलाओं के, जब तब अपनी मर्दानगी साबित करने के लिए उच्चवर्ग द्वारा पूरे गांव के सामने कपड़े खींच लिए जाता हैं। ऐसा लगता है मानों कौरव और उनकी सभा आज भी बेरोकटोक जीवित है। कौरवों की भरी सभ में द्रौपदी का चीरहरण वाला प्रसंग 21वीं सदी में प्रवेश कर जाने के बाद भी वर्तमान है। कौरव-पांडव युग में लोगों ने द्रौपदी के चीरहरण को देखकर सिसकारियां भरी होंगी या अफसोस जताया होगा, मुझे नहीं मालूम, लेकिन अब इतना तो समझ ही गया हूं कि वर्तमान में जब भी कोई दुःशासन बनकर किसी द्रौपदी का चीरहरण करता है तो लोगों की सिसकारियां ही निकलती हैं। अफसोस या संवेदना जैसा कुछ तो विलुप्त प्राय हो चुका है।
क्या ऐसी घटनाएं इस बात की ओर संकेत नहीं करतीं कि आज भी तथाकथित उच्च वर्ग की सोच में जरा भी फर्क नहीं आया है। क्या, उनकी सोच उन तालिबानियों की सोच से जरा भी इतर है जो पाकिस्तान में लोकतंत्र की कब्र खोदने में जुटे हुए हैं और जब भी कभी ‘लोक’ उनको रोकने की कोशिश करता है, दमघोंटू सीलन भरी मर्दानगी से उनके घुटने तोड़ दिये जाते हैं। जैसे, तुम दबे कुचले ही अच्छे लगते हो। और, हमारे यहां भी निम्न वर्ग का दबा कुचला होना ही विकास का आधार माना जाता है। 15वीं लोकसभा के गठन के बाद महिला आरक्षण बिल पर शरद यादव का जहर खा लेने का शगूफा छेड़ना भी इसी तालिबानी सोच का नतीजा है। कहने को तो वे खुद को महिलाओं की उन्नति का पक्षधर कहते हैं लेकिन इसका विरोध करने में वे सबसे आगे भी नजर आये जिनकी लकीर सपा प्रमुख मुलायम ने भी पकड़ी। आखिर ‘सर्वोच्च सत्ता’ पर ‘घूंघटदारी सत्ता’ को वे कैसे बर्दाश्त करें। देखने वाली बात तो यह होगी कि जिस आधार पर शरद यादव जैसे लोग इस बिल का विरोध कर रहे हैं, इसके पास होने के बाद अपने उस आधार को खुद पर लागू करते हैं या नहीं। भविष्य में होने वाले चुनावों में शरद यादव का लिटमस टेस्ट होगा और टिकट बंटवारे पर भी सबकी नजर रहेगी कि महिला आरक्षण बिल में भी आरक्षण की मांग पर वे खुद कितना अमल करते हैं।
खैर, मैं शायद भटक रहा हूं। पता नहीं मुझे क्या कहना था और मैं क्या कहे जा रहा हूं। शायद मैं खुद इस देश का सबसे बड़ा नपुंसक हूं कि आम लोगों को दबाने वालों का विरोध तक नहीं कर सकता। मैंने खुद को इतना कमजोर महसूस किया कि उससे उबरने को कलम को अपना साथी बनाने की कोशिश की लेकिन... यह कलम भी कमजोर ही निकली. ऐसी कलम की बिसात ही क्या जिसकी स्याही उसी कथित उच्चवर्ग के रहमोंकरम से भरी जाती हो जिसके खिलाफ खड़े होने के लिए हमने कलम का सहारा लिया। .... चलिए बहुत हो चुका, मैं पहले ही भटका हुआ था, ज्यादा बोला तो और, भटक जाऊंगा...


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Monday, June 8, 2009

फेडरर के नाम 14वां ग्रैण्ड स्लैम


आखिरकार दुनिया के दूसरे नंबर के खिलाडी स्विट्जरलैण्ड के रोजर फेडरर का फ्रेंच ओपन जीतने का सपना सच हो ही गया। फेडरर ने फाइनल में स्वीडन के रोबिन सोडरलिंग को लगातार सेटों में 6-1, 7-6, 6-4 से हराकर पहली बार रोलां गैरो में अपनी पताका फहरा दी। इसी के साथ उन्होंने अमरीका के पीट सेम्प्रास के सर्वाधिक 14 ग्रैण्ड स्लैम खिताब जीतने के विश्व रिकार्ड की बराबरी कर ली।उन्हें इससे पहले लगातार तीन बार रोलां गैरो की लाल बजरी पर परंपरागत प्रतिद्वंद्वी और दुनिया के नंबर एक खिलाडी स्पेन के राफेल नडाल के हाथों शिकस्त झेलनी पडी थी।इस जीत के साथ फेडरर करियर ग्रैण्ड स्लेम जीतने वाले दुनिया के कुल छठे और ओपन एरा (1968 से) में ऎसा करने वाले वाले तीसरे खिलाडीबन गएहैं। वह इससे पहले तक विंबलडन (पांच बार), यूएस ओपन (पांच बार) और आस्ट्रेलियन ओपन (तीन बार) में 13 ग्रैण्ड स्लैम जीत चुके थे।

फेडरर से पहले करियर ग्रैण्ड स्लैम बनाने वाले खिलाडी
* फ्रेड पैरी (इंग्लैण्ड), डॉन बुडगे, आन्द्रे अगासी (अमरीका), रॉड लेवर, रॉय इमरसन (आस्ट्रेलिया)।
* इनमें पैरी, बुडगे और इमरसन ने यह उपलब्धि ओपन एरा (1968 से) से पहले हासिल की। वहीं आगासी ने इसके बाद ऎसा किया। लेवर ने ओपन एरा से पहले भी और इसके बाद भी में यह कारनामा किया।
* टेनिस के इतिहास को ओपन एरा और इसके बाद के समयकाल में बाटा जाता है। ओपन एरा से पहले पेशेवर खिलाडियों को प्रतिष्ठित टूर्नामेंटों में खेलने की इजाजत नहीं होती थी। 1968 से सभी बडे टूर्नामेंट के आयोजकों पेशेवरों को शामिल होने की इजाजत दी।
* करियर ग्रैण्ड स्लैम: जब कोई खिलाडी अपने करियर में कभी न कभी चारों ग्रैण्ड स्लैम टूर्नामेंट जीतने में सफल रहता है तो इसे करियर ग्रैण्ड स्लैम कहते हैं।
* एक ही वर्ष में चारों ग्रैण्ड स्लैम जीतने को कैलेंडर ग्रैण्ड स्लैम हासिल करना कहा जाता है।
* गोल्डन स्लैम: जब कोई खिलाडी एक साल में सभी ग्रैण्ड स्लैम जीतने के साथ-साथ अगर उस साल ग्रीष्मकालीन ओलम्पिक हुआ हो और उसमें भी स्वर्ण जीतता है तो इसे गोल्डन स्लैम कहा जाता है। कोई भी पुरूष खिलाडी अब तक ऎसा नहीं कर पाया। महिला वर्ग में स्टेफी ग्राफ ने 1988 में यह दुर्लभ उपलब्धि हासिल की थी।


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Friday, May 22, 2009

जूजू को पेटा अवॉर्ड



टेलिकॉम ऑपरेटर वोडाफोन के जूजू विज्ञापन को पेटा (पीपल फॉर एथिकल ट्रीटमंट फॉर एनिमल्स)ने भारत का पहला ग्लिटर बॉक्स पुरस्कार दिया है। पेटा का कहना है कि यह पुरस्कार विज्ञापनों में वास्तविक जानवरों की जगह मानव विकल्पों का इस्तेमाल करने वाली कंपनियों को दिया जाता है। पेटा ने इससे पहले वोडाफोन के पुराने विज्ञापनों में जानवरों के इस्तेमाल को लेकर आपत्ति जताई थी। पेटा की चीफ फंक्शनरी अनुराधा साहनी का कहना है कि इस विज्ञापन की लोकप्रियता से यह साबित होता है कि जानवरों के इस्तेमाल के बिना भी संदेश को पहुंचाने के बहुत से अन्य रास्ते मौजूद हैं।
ऐड कैरेक्टर हैं 'जूजू'
छोटे-छोटे सफेद चेहरे हैं 'जूजू', जो इन दिनों वोडाफोन के ऐड में नजर आ रहे हैं। वोडाफोन अपनी वैल्यू ऐडेड सर्विसेज के ऐड में इन्हें पेश कर रही है। ऐड फिल्म्स बनाने वाली कंपनी निर्वाण फिल्म्स ने जूजू कैरेक्टर्स के साथ ये ऐड बनाए हैं, जिन्हें दर्शक खूब पसंद कर रहे हैं। इससे पहले वोडाफोन का कुत्ते (पग) वाला ऐड भी निर्वाण फिल्म्स ने ही बनाया था। आपको यह देखकर लगता होगा कि ये एनिमेटेड कैरेक्टर्स हैं, जो मानवीय संवेदनाएं दिखाते हैं। पर ऐसा नहीं है। ये मुंबई के लोकल थिएटर से लिए गए स्लिम वुमन ऐक्टर्स हैं, जिन्हें सफेद कपड़े पहनाकर जूजू का रूप दिया गया है।


जूजू का क्रेज इतना ज्यादा है कि वोडाफोन के ऐड यूट्यूब पर सबसे ज्यादा वॉच किए जाने वाले विडियो हैं। फेसबुक पर जूजू के 1 लाख 30 हजार से ज्यादा फैन्स हैं और यह संख्या लगातार बढ़ रही है।



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लॉन्ज़री फुटबॉल लीग


लॉन्ज़री फुटबॉल लीग (LFL) सितम्बर 2009 में होनी है। 20 सप्ताह तक चलने वाले इन मैचों में ये फुटबॉल खिलाड़ी लॉन्ज़री में नज़र आएंगी। फिलहाल ये स्पोर्ट्स वुमन तैयारी के दौरान ट्रेनर्स के सामने खुद को फिट साबित करने में लगी हैं, ताकि इनका सिलेक्शन न्यूयॉर्क मैजिस्टी के लिए पक्का हो जाए, जो इस लीग में शामिल होनेवाली एक प्रमुख टीम है। आनेवाले लॉन्ज़री फुटबॉल लीग के लिए न्यूयॉर्क के फ्रीपोर्ट में जमकर तैयारी की जा रही है। इस लीग के 2009 सीज़न में 10 टीम मैदान में उतरेंगी। कुल 10 टीमों के बीच होनेवाला यह मैच सितंबर से जनवरी तक खेला जाएगा, जिसमें हर टीम को चार मैच खेलने का मौका मिलेगा।


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Thursday, May 21, 2009

किसे मिलेगा कौन सा मंत्रालय?

  • प्रणव मुखर्जी रक्षा मंत्रालय चाहते हैं
  • खुर्शीद और सिब्बल का नाम विदेश मंत्रालय के लिए
  • चिदंबरम वापस पाना चाहते हैं वित्त मंत्रालय
  • सुशील कुमार शिंदे का नाम गृह मंत्रालय के लिए
  • ममता और करुणानिधि दोनों को चाहिए रेल मंत्रालय
  • शशि थरूर को विदेश राज्यमंत्री बनाया जा सकता है
कैबिनेट में ज्यादा संख्या और महत्वपूर्ण मंत्रालयों के लिए यूपीए के घटक दलों ने कांग्रेस पर दबाव डालना शुरू कर दिया है। सबसे ज्यादा दबाव नंबर दो की ताकतवर पार्टी डीएमके बना रही है। उसके 18 सदस्य हैं मगर वह 3 कैबिनेट सहित 7 मंत्रिपद मांग रहे हैं। मंत्रालयों में डीएमके आईटी और कम्युनिकेशन, सड़क और परिवहन मंत्रालय जैसे बड़े बजट के मंत्रालयों की वापसी के साथ रेल और ग्रामीण विकास जैसे महत्वपूर्ण मंत्रालय भी मांग रहा है। सबसे ज्यादा 19 सीट पाने वाली तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) की निगाहें भी रेल पर हैं, ताकि पश्चिम बंगाल में दो साल बाद होने वाले विधानसभा चुनाव से पहले ममता दो रेल बजट अपने राज्य को समर्पित कर सकें।
कांग्रेस पिछली बार के मंत्रालय तो अपने पास रखना चाहती है, साथ ही आईटी और कम्युनिकेशन और देश में राष्ट्रीय राजमार्ग की दशा सुधारने के लिए सड़क और परिवहन में भी अपने आदमी बिठाना चाहती है। रक्षा, विदेश, गृह, वित्त, मानव संसाधन जैसे मंत्रालय कांग्रेस के सबसे काबिल मंत्रियों के पास रहेंगे। कांग्रेस में प्रणब मुखर्जी, ए। के। एंटनी और चिदम्बरम सबसे योग्य और हरफनमौला मंत्रियों में माने जाते हैं। वित्त मंत्रालय को लेकर प्रधानमंत्री थोड़ी पसोपेश में हैं, क्योंकि पार्टी की पसंद उनकी निजी पसंद से नहीं मिल रही है। पार्टी की तरफ से प्रणब को मंत्रालय देने की बात आ रही है, जबकि मनमोहन अपने मनमुताबिक आदमी चाहते हैं, जिनमें चिदंबरम और मोंटेक सिंह का नाम शामिल है। अगर प्रणब वित्त मंत्रालय पा जाते हैं, तो चिदंबरम होम मिनिस्टर बने रहेंगे। एंटनी का रक्षा मंत्रालय संभालना लगभग तय है। उधर कपिल सिब्बल के नाम पर विदेश मंत्रालय जैसी अहम मुहर लग सकती है और अगर ऐसा नहीं हो पाता है, तो उन्हें मानव संसाधन मंत्रालय दिया जा सकता है। सलमान खुर्शीद भी इस बार अहम नामों में से हैं। सलमान को मानव संसाधन या अल्पसंख्यक कल्याण मंत्रालय की कमान सौंपी जा सकती है। एनसीपी की तरफ से शरद पवार और प्रफुल्ल पटेल दावेदार होंगे। नैशनल कॉन्फ्रेंस की तरफ से फारूक अब्दुल्ला खुद मंत्री बनना चाहते हैं।


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Sunday, May 17, 2009

जिनके सिर जूता, उनकी मौजां ही मौजां

यह महज इत्तेफाक या कुछ और भी हो सकता है कि जो राजनेता लोकसभा चुनाव से पहले ' जूता मिसाइल' का शिकार बने, उन सभी ने जीत का स्वाद चखा है। केंद्रीय गृह मंत्री पी. चिदंबरम, भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी और उद्योगपति नवीन जिंदल चुनाव जीत गए हैं। इन सभी पर जूते उछाले गए थे। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की ओर भी जूता उछाला गया, लेकिन वह इस बार चुनावी मैदान में नहीं थे। वैसे वह एक विजेता के तौर पर उभरे , क्योंकि उनके नेतृत्व में कांग्रेस की अगुवाई वाले यूपीए ने सत्ता में शानदार वापसी की। कर्नाटक के मुख्यमंत्री बी. एस . येदियुरप्पा पर पिछले महीने हासन में एक चुनावी सभा के दौरान जूता उछाला गया था। उन्होंने अपने पुत्र बी . वाई . राघवेन्द्र के लिए जीत सुनिश्चित की। सिंह , चिदंबरम , आडवाणी और जिंदल उन नेताओं में शामिल रहे जिन पर चुनाव से पहले जूते उछाले गए थे , लेकिन असल में जूते उन्हें छू नहीं पाए थे। प्रधानमंत्री पर भी गुजरात में उनकी पहली चुनावी सभा के दौरान एक स्टूडंट ने जूता उछाला था। पिछले महीने आडवाणी पर एक चुनावी सभा के दौरान एक बीजेपी कार्यकर्ता ने चप्पल उछाली थी। वहीं , नवीन जिंदल पर स्कूल के एक रिटायर्ड टीचर ने जूता फेंका था। इसकी शुरुआत पत्रकार जनरैल सिंह के साथ हुई थी , जिन्होंने चिदंबरम पर 8 अप्रैल को एक पत्रकार सम्मेलन के दौरान जूता उछाला।


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जनादेश में दिखी "जन" की ताकत

15वीं लोकसभा चुनाव में एक बार फिर लोकतंत्र की जीत हुई है और जनादेश-2009में जन ने अपनी ताकत दिखा दी। कांग्रेसनीत यूपीए के हाथ आई वोटर की इस ताकत ने बड़े-बड़े राजनीतिक विश्लेषकों को धराशाई कर दिया है। क्या इस परिणाम को कांग्रेस के पक्ष में बिल्ली के भाग्य से छींका फूटने जैसी बात नहीं मानी जा सकती? या फिर वोटर के पास कांग्रेस के हाथ में अपना हाथ सौंप देने के सिवा दूसरा कोई विकल्प नहीं था?
इस चुनावपरिणाम को देश का बौद्धिक नेतृत्व रखने का दावा करने वाले वामपंथियों के मुंह पर वोटर का करारा तमाचा क्यों नहीं कहा जा सकता? और, आम आदमी का सबसे बड़ा हितैषी होने का खम ठोकने वाली भारतीय जनता पार्टी की नैतिक पराजय क्यों नहीं है? और, इस चुनाव परिणाम को ऐसे भी देखा जा सकता है कि भाजपा और कांग्रेस के झगडे में वोट लूटने के इंतजार में बैठी बसपा व सपा जैसी पार्टियों की उम्मीदों पर वज्रपात हो गया। अब इसके जो भी मायने निकालें जायें लेकिन वोटर ने सचमुच "जन" की परवाह न करने वालों की हवा निकाल ही दी है।
उत्तर प्रदेश के संदर्भ में देखें तो इस जनादेश के निहितार्थ और भी तीखे रुप में सामने आ रहे हैं। अपने गुजरने से पहले सड़कों को पानी डलवाकर धुलाई करवाने वाली, चाटुकार अफसरशाही और बिना रीढ़ वाले सलाहकारों से घिरीं प्रदेश की मुखिया क्या इस जनादेश से कोई सबक लेंगी? कल्याण की दोस्ती के मकड़जाल में फंसे और जया प्रदा की लाज बचाने के लिए आजम खां तक को किनारे लगा बैठे मुलायम क्या इस जनादेश के संदेशों को पढ़ने की कोई कोशिश करेंगे? टिप्पणी लिखे जाने तक आजम खां ने पार्टी के संसदीय बोर्ड से इस्तीफा दे दिया है।
क्या इस जनादेश को समझ कर यूपी को अपना मठ मानने वाले भगवाधारी भाजपा "मठाधीश" बनने की बजाय देश की "जनता की पार्टी" बनाने की दिशा में कोई पहल करेगी?
वोटर ने तो अपना काम पूरा कर डाला है और इस जनादेश पर उत्तर प्रदेश की सारी जनता को जश्न मनाना चाहिए। जश्न इसलिए कि इस जनादेश में देश के सबसे अमीर उम्मीदवार पीलीभीत से कांग्रेस के वीएम सिंह की जमानत जब्त हो गयी तो पुरखों की गाढ़ी कमाई को पिछले कई महीनों से लखनऊ की जनता निछावर करते जा रहे अखिलेश दास गुप्ता का भी हाल बुरा ही कर दिया है। साफ संदेश हैं कि पैसे के बूते पर हर तरफ लहर का दावा करने के बाद भी आखिरी फैसला जनता के ही हाथ में है। उत्तर प्रदेश की जनता को जश्न इसलिए भी मनाना चाहिए कि इस जनादेश ने धन बल के साथ ही बाहुबल के भी चारो खाना चित कर डाला है। भारतीय संविधान में आस्था रखने वाले और समाज के नियम कानूनों में यकीन रखने वाले हर एक आदमी को क्या इस बात का जश्न नहीं मनाना चाहिए कि इस जनादेश ने वाराणसी में "गरीबों के मसीहा" कहे गए मुख्तार अंसारी को उनकी हैसियत बता दी है, क्या इस बात के लिए जश्न नहीं मनाया जाना चाहिए कि डीपी यादव, अफजाल अंसारी, रिजवान जहीर, अन्ना शुक्ला, अशोक चंदेल और अतीक अहमद जैसे कथित माननीय भी इस बार संसद की शोभा बढ़ाने से वंचित कर दिए गए हैं।
लेकिन चिंता करने की भी कई वजहे हैं। सबसे बडी चिंता पिछली सरकार की तरह इस सरकार में भी उत्तर प्रदेश को प्रतिनिधित्व से वंचित न होना पड़ जाए। पिछली बार राज्य की लगभग तीन चौथाई सीटों का प्रतिनिधित्व रखने वाली सपा और बसपा की बारी-बारी मदद से मनमोहन सिंह की सरकार पूरे पांच साल चल तो गई लेकिन उत्तर प्रदेश को सरकार में भागीदारी का सुख नहीं मिल पाया। इस बार जनादेश कांग्रेस के पक्ष में भले ही हुआ हो लेकिन उत्तर प्रदेश की तीन चौथाई जनता का प्रतिनिधित्व अभी भी उसकी पिछली सहयोगी पार्टियों के पास ही है। ऐसे में आने वाला राजनीतिक घटनाक्रम जैसा भी हो उत्तर प्रदेश को सत्ता में भागीदारी तो मिलनी ही चाहिए।
खैर जिस जय हो के नारे के कांग्रेस ने चुनाव अभियान की शुरूआत की थी, अब उसे वोटर की जय बोलनी चाहिए और जय बोलनी चाहिए लोकतंत्र की क्योंकि अंत में जन ने अपना जनादेश दे दिया है.


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जनादेश-2009 के स्पष्ट संकेत

सबसे पहला यह कि जनादेश-2009 मनमोहन सिंह और उनकी यूपीए सरकार पर जनता के विश्वास की ओर संकेत करता है। जनता यह स्वीकार नहीं कर सकी कि विश्वव्यापी आथिर्क मंदी से निपटने, परमाणु करार के देश हित में होने के बावजूद विपक्षियों ने चुनाव जीतने के लिए कांग्रेस/यूपीए की सार्वजनिक आलोचना की गयी। और, सरकार को अक्षम साबित करने की कोशिश की जबकि जनता अपनी आंखों से देखती रही कि सरकार इन सभी मुद्दों से निपटने के लिए किस प्रकार कोशिश करती रही।
मतदाता के मन में मंदी से मुकाबले की बात जरुर थी और इसके लिए वह स्थायी सरकार चाहती थी। ऐसे समय में मतदाता जांची परखी सरकार भी चाहता था जो वह कांग्रेस को ही समझता है। आमआदमी को मनमोहन सहज, भले और ईमानदार पीएम लगते हैं.
जनता ने आक्रामक और अनर्गल प्रचार पसंद नहीं किया। यही कारण है कि चुनाव प्रचार के दौरान बेहद आक्रामक रुख अख्तियार करने वाली भारतीय जनता पार्टी और उसके गठबंधन को कितना नुकसान उठाना पडा। सीधे-साधे पीएम मनमोहन सिंह को बार-बार कमजोर बताने की भाजपा की रणनीति ने उनकी लुटिया डुबो दी। मनमोहन और यूपीए सरकार पर एनडीए के कडे प्रहार जनता की सोच से मेल नहीं खा सके।
यूपी के पीलीभीत में भडकाउ भाषण देकर अचानक की भाजपा के स्टार प्रचारक बन बैठे वरुण गांधी का सम्प्रदाय विशेष के प्रति अविश्वसनीय रुप से कडी टिप्पणी का नुकसान भी भाजपा को हुआ। इसको लेकर पार्टी में ही चुनाव परिणाम के बाद विद्रोह के स्वर उठने लगे हैं। मुख्तार अब्बास नकवी व शाहनवाज हुसैन ने साफ तौर पर कहा है कि यूपी और अन्य प्रदेशों में वरुण की वजह से मुस्लिम वोट खिसक गये।
चुनाव के दौरान एनडीए का लालक़ष्ण आडवाणी को पीएम के रुप में प्रोजेक्ट करना भी हार का कारण रहा। दरअसल अटल बिहारी वाजपेयी के दौरान भी आडवाणी भाजपा के प्रमुख नेता के रुप में सामने आये लेकिन वाजपेयी की उदार छवि के चलते भाजपा अपने चरम पर रही। लेकिन जब 15वीं लोकसभा चुनाव में आडवाणी एनडीए के मुखौटे के रुप में सामने आये तो जनता ने आक्रामकता से तौबा कर ली। यह वही आडवाणी हैं जो गांधी नगर में चुनाव जीतने के लिए मोहम्मद अली जिन्ना की आदमकद तस्वीर के साथ मुस्लिम एरिया में प्रचार करते नजर आये। जीतने के लिए इस घटिया तरीके को वर्ग विशेष के साथ आम जनता को भी सोचने पर मजबूर कर दिया।
चुनाव से पहले और चुनाव के दौरान राहुल गांधी युवाओं की आस्था के केंद्र के रुप में नजर आये। मतदाताओं ने उन्हें भावी पीएम के रुप में देखा और भविष्य में युवा वर्ग के लिए कुछ करने का जज्बा भी, लेकिन इन चुनाव परिणाम से यह नहीं कहा जा सकता कि यूपीए के पक्ष में लहर रही। इसे विकल्पहीनता के रुप में भी देखा जा सकता है। और, भाजपा कांग्रेस के विकल्प के रुप में मजबूती से सामने नहीं आ सकी।
जहां तक उत्तर और दक्षिण में अलग रुझान की बात है तो यूपी में चतुष्कोणीय मुकाबला था और लोगों ने भ्रम में पडने की बजाय गांधी परिवार पर भरोसा किया। राहुल, प्रियंका और सोनिया गांधी में उन्हें नयापन दिखा।
इस चुनाव में मतदाता ने क्षेत्रीय दलों के दंभ और अकड को नकार दिया। जनता ने उन्हें ब्लैकमेलिंग करते हुए पूरे साढे चार साल देखा और ऐन चुनाव के समय यूपीए से अलग होना उन्हें पसंद नहीं आया। वैसे इस चुनाव से क्षेत्रीय दलों के लोस चुनावों में पराभव के दौर के रुप में भी देखा जा सकता है।
वामदलों की अपने गढ पश्चिम बंगाल और केरल में शमर्नाक शिकस्त भी कुछ यही कहानी कहती नजर आये। परमाणु करार मुद्दे पर पूरे देश ने उनकी नौटंकी देखी थी। इसके अलावा भूमि अधिग्रहण के मामले में भी उनकी तानाशाही पश्चिम बंगाल की जनता ने देखी और उनके रवैये को सिरे से नकार दिया।
और अंत में,
जनता ने एक बार फिर एकदल पर विश्वास जताने का संकेत दिया है। इसका तात्पर्य है कि भाजपा को अब भी चेत जाना चाहिए और नकारात्मक प्रचारों, अनर्गल टिप्पणियों से बचना चाहिए ताकि वह कांग्रेस के समानांतर खडा हो सके। एक मजबूत विपक्ष के होने से सत्ता पक्ष के तानाशाह होने का खतरा नहीं रहता.


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राष्ट्रीय राजनीति के हाशिए पर वाम दल

पिछले पांच वर्ष से केंद्र की राजनीति में छाए रहे वाम दल पश्चिम बंगाल का किला टूटने के साथ ही अचानक नाटकीय रूप से राष्ट्रीय राजनीति के हाशिए पर पहुंच गए हैं। पश्चिम बंगाल और केरल में वाम दलों का पत्ता साफ हुआ है और कांग्रेस के नेतृत्व वाले गठजोड़ ने उन्हें करारी शिकस्त दी है। तीसरे मोर्चे के गठन के साथ ही केंद्र में गैर कांग्रेस सरकार बनाने का सपना देख रहे वाम की किरकिरी हो गई। पिछले लोकसभा चुनाव के मुकाबले इस बार वाम मोर्चा को आधी ही सीटें मिलने की उम्मीद है। केरल में माकपा नीत वाम मोर्चा को 2004 में 20 में से 19 सीटें मिली थीं, लेकिन इस बार केवल चार सीटों पर ही पकड़ बनी है। विश्लेषक माकपा नेताओं केरल के मुख्यमंत्री वीएस अच्युतानंदन व सचिव पिनाराई विजयन के बीच हुए विवाद को हार की वजह बता रहे हैं। प. बंगाल में ममता की तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस के गठबंधन ने वाम दलों की सीटों की संख्या अब तक के सबसे निचले स्तर पर पहुंचा दी है। वाम दलों ने भारत अमेरिकी परमाणु करार के मुद्दे पर संप्रग सरकार से समर्थन वापस ले लिया था। वाम दलों ने गैर कांग्रेस और गैर भाजपा वैकल्पिक सरकार बनाने के इरादे से तीसरा मोर्चा बनाया। माकपा भाकपा फारवर्ड ब्लाक आरएसपी के अलावा तीसरे मोर्चे में मायावती की बसपा एच डी देवगौड़ा की जद एस एन चंद्रबाबू नायडू की तेदेपा और अन्नाद्रमुक की जे जयललिता शामिल हुइं। मोर्चे में शामिल टीआरएस पिछले सप्ताह की राजग में शामिल हो गया था। बीजद के भाजपा से संबंध तोड़ने के बाद वाम मोर्चा काफी उत्साहित था। वाम दलों के नेताओं ने चुनाव बाद के परिदृश्य में स्पष्ट कर दिया है कि वे कांग्रेस नीत सरकार का समर्थन करने की बजाय विपक्ष में बैठना पसंद करेंगे।


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Friday, May 15, 2009

.... कि बंद आंखों से वे दुनिया को देखते हैं

हमारे पडोसी देश पाकिस्तान की हालत पर अब कुछ तरस सा आने लगा है. बंद आंखों से दुनिया को देखने वाले इस देश को और देशों की शांति और सुशासन शायद रास नहीं आती है और कभी तालिबानियों तो कभी आतंकियों के माध्यम से इसे साबित भी करता रहा है. उसके खुद के घर में आग लगी हुई है और पूरा देश उस आग में जो कि खुद उसी के द्वारा लगाई गयी है, झुलस रहा है. आम लोगों का जीना मुहाल हो गया है और स्वात घाटी से पलायन ही सारी कहानी बयां कर जा रही है. रोज अखबारों में वहां की शांति और सुशासन की कलई खुल रही है लेकिन उसे इससे इत्तेफाक कहां?
हाल ही में आईसीसी ने पाकिस्तान से विश्वकप क्रिकेट की मेजबानी छीन ली तो वहां के हुक्मरानों को जैसे आग लगी और खुद पीसीबी आक्रामक हो उठा. वे पूरी दुनिया को यह जतलाने की कोशिश करने में जुटे हुए हैं कि अगर पाकिस्तान के हालात ऐसे नहीं हैं कि वहां क्रिकेट का महाकुंभ नहीं लग सकता तो भारत, श्रीलंका और बांग्लादेश के हालात भी इसकी गवाही नहीं देते. आईसीसी के पूर्व अध्यक्ष पाकिस्तान के अहसान मनी तो इसके लिए सीधे ही भारत को दोषी ठहरा रहे हैं. वैसे दूसरे “अहसानों” की पाक में कमी नहीं है. विश्वकप की मेजबानी के लिए अपने घर में माहौल न होने के बावजूद पीसीबी का सही जगह होने का दावा करना हास्यास्पद ही है और रवैया काफी कुछ अपनी सरकारों जैसा ही. भारत में कत्लेआम मचाने के लिए आतंकवादियों को शह देने वाला पाक और उसकी सेना, गुप्तचर एजेंसी आईएसआई पूरी दुनिया को यह बताने से नहीं चूकते कि वे खुद ही आतंकवाद ग्रसित देशों में हैं. दरअसल ऐसा कर वह अमेरिका से मिलने वाली सहायता राशि गंवाना नहीं चाहता और अपनी राजनीतिक रोटियों को जलते हुए नहीं देखना चाहता. पाकिस्तान का राजनीतिक आधार कुछ ऐसा है कि सत्ता पर काबिज होने के लिए अपने बडे भाई भारत का विरोधी तो होना ही होगा. संवदनाओं को जेहाद के माध्यम से भडकाकर वे जिस पाकिस्तान की कल्पना करना चाह रहे हैं क्या वह तरक्कीपसंद नुमाइंदों की पहचान कही जा सकती है?
जिस देश ने सदियों पुराने शरीयत को स्वात घाटी (अघोषित रुप से तो कई अन्य जगहे भीं) में मान्यता देकर तालिबानियों के चश्में से दुनिया को देखने और दिखाने की कोशिश की हो उसे तरक्की पसंद देश की संज्ञा कैसे दी जा सकती है। खुद अपना दामन बचाने के लिए वहां के राजनीतिज्ञों ने जिस तालिबान का सहारा लिया क्या उससे यह आशा की जा सकती है कि अमेरिकी दबाव में वह तालिबानियों पर आक्रमण कर उसे नेस्तनाबूद करने की इक सही कोशिश भी करेगा। जब मुंबई में कुछ महीनों पूर्व हुए आतंकी हमले में सैकडों बेगुनाहों का खून पानी की तरह बहा दिया गया था और जब इस दुस्साहसिक हमले में पाकिस्तान का साफ हाथ नजर आया तो पहले इनकार और फिर हमले में पकडे गये एकमात्र आतंकी अजमल कसाब के खुद यह बयान देने कि वह पाकिस्तान का नागरिक है, पाक हुक्मरान सकते में आ गये थे। कसाब के खुलासे के बाद कि मुंबई के समुद्री तटों तक पहुंचने में पाक सेना ने भी मदद की थी, लीपापोती करने में जुट गया था पाक। यहां तक कि उसे माता-पिता को डराया धमकाया गया, लश्कर-ए-तइबा के जिस आतंकी अब्दुल रहमान लखवी को कसाब ने अपना आका बताया, दुनिया को दिखाने के लिए उसे घर में ही नजरबंद किया गया, जहां से वह लापता हो गया। यह खबर पाक मीडिया ने ही दी। क्या इससे पाक का यह दोगलापन सामने नहीं आया कि मुंबई हमलों में पाक का हाथ नहीं है और फिर लखवी को कैद करने की भी जरुरत आन पडी। लापरवाही तो खैर पाकिस्तान का चेहरा ही है। शायद वह यह नहीं सोच रहा कि इस आग में एक दिन पाकिस्तान के अस्तित्व पर भी संकट उठ खडा होगा। वैसे यह बात पाकिस्तान के एक उपन्यासकार और राजनीति की गहरी समझ रखने वाले व्यक्ति ने भी हिंदुस्तान के एक शीर्ष दैनिक में एक लेख के माध्यम से उजागर किया है.
खैर, बात क्रिकेट की,
पीसीबी की ओर से यह बयान लगातार जारी हो रहे हैं कि भारत, श्रीलंका और बांग्लादेश में स्थिति विश्वकप कराने जैसी नहीं है. वहां के माहौल खेल आयोजित कराने जैसे नहीं हैं. चलो हम मान भी लें कि पीसीबी सही कह रहा है तो फिर उसने जुलाई के बाद श्रीलंका में अपनी क्रिकेट टीम भेजने के लिए वह राजी कैसे हो गया. क्या यहां पर उसका दोमुहापन उजागर नहीं होता. दरअसल पाक नहीं चाहता कि भारत को विश्वकप आयोजन का श्रेय मिले. हालात का मुद्दा तो दुनिया को असल हकीकत से दूर ले जाने का प्रयास है. वैसे पाकिस्तान जरा यह तो बताये कि श्रीलंकाई क्रिकेट टीम पर हमला कहां पर हुआ, भारत में, बांग्लादेश में या श्रीलंका में?
खैर पाकिस्तान क्या सोच रहा है इससे हमें कोई फर्क नहीं पडना चाहिए लेकिन उसकी सोच की शुरुआत और अंत भारत से ही होता है तो जरुर सोचने वाली बात है। पाक से इतर भारत की बात करें यहां के राजनीतिज्ञों में इस बात की प्रतिबद्धता नजर नहीं आती कि आतंकवादियों के खिलाफ सही कार्रवाई भी होनी चाहिए. उनके लिए तो यह मुद्दा केवल वोट खींचने तक ही सीमित है.

वैसे तरस तो हमें खुद पर भी आने लगा है,
आखिर हमारी सोच भी तालिबान जैसी क्यों नहीं है---
हम तालिबान को जी भरकर कोसते हैं क्योंकि वे लड़कियों के स्कूल जलाते हैं, हम उन्हें नामर्द कहते हैं। वे कोड़े बरसाते हैं तो हम उन्हें ज़ालिम कहते हैं। वे टीचर्स को भी पर्दों में रखते हैं , हम उन्हें जंगली कहते हैं।
हमारी सोच तालिबानी क्यों नहीं-
- क्योंकि हम हमारी संस्कृति और इज़्ज़त की रक्षा के लिए कुछ भी कर गुजरने को तैयार रहते हैं।
- क्योंकि हम यह सुनते ही उबल उठते हैं कि जाट की लड़की दलित के लड़के के साथ भाग गई। उन्हें ढूंढते हैं , पेड़ों से बांधते हैं और जला डालते हैं ... ताकि संस्कृति बची रहे।
- क्योंकि इस काम में लड़की का परिवार पूरी मदद करता है , क्योंकि उसके लिए इज़्ज़त बेटी से बड़ी नहीं।
- क्योंकि हम उस समय भन्ना उठते हैं , जब लड़कियों को छोटे - छोटे कपड़ों में पब और डिस्को जाते देखते हैं। फौरन एक वीरों की सेना बनाते हैं। सेना के वीर लड़कियों की जमकर पिटाई करते हैं और उनके कपड़े फाड़ डालते हैं।
- क्योंकि जिन्हें संस्कृति की परवाह नहीं , उनकी इज़्ज़त को तार - तार किया ही जाना चाहिए। उसके बाद हम ईश्वर की जय बोलकर सबको अपनी वीरता की कहानियां सुनाते हैं।
- क्योंकि जो रेप के लिए लड़की को ही कुसूरवार ठहराते हैं क्योंकि उसने तंग और भड़काऊ कपड़े पहने हुए थे।
- क्योंकि हम अपनी गर्लफ्रेंड्स का mms बनाने और उसे सबको दिखाने में गौरव का अनुभव करते हैं और हर mms का पूरा लुत्फ लेते हैं।
- क्योंकि यह सब करने के बाद हम बड़ी शान से टीवी के सामने बैठकर तालिबान की हरकतों को ' घिनौना न्याय ' बताकर कोसते हैं और अपनी संस्कृति को दुनिया में सबसे महान मानकर खुश होते हैं।


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