Wednesday, September 2, 2009

क्या कहूं कि मन मेरा कुलाचें भर रहा है....

यही कोई सात-साढ़े सात का वक्त हुआ रहा होगा। मैं अपने कंप्यूटर से भिड़ा हुआ था जैसा कि अमूमन होता ही है क्योंकि सीसीटीवी कैमरा संपादक की तरह आंखे जो तरेर रहा था। इस दौरान बार-बार "ओह", "अर र", "उफ", "अबे देख के" ........ जैसी आवाजें मेरा ध्यान भंग करने लगीं। इन आवाजों ने फेविकोल के जोड़ की तरह कुर्सी से चिपके होने के बावजूद मुझे उस ओर जाने को मजबूर कर दिया जिस ओर से आवाजें आ रही थीं।
वह सोमवार, 31 अगस्त का दिन था और ऐसा कोई खास भी नहीं था। सुबह 11 बजे के आस-पास ऑफिस पहुंचा तो भी कुछ विशेष नहीं प्रतीत हुआ। सब कुछ सामान्य सा था मगर शाम को जो हुआ वह कभी भी सामान्य न था। करीब पांच बजे हमारे सहयोगी यादव जी ने मुझसे पूछा "भई आज मैच कितने बजे से है।" मैं अपनी कुर्सी पर आराम से बैठे-बैठे भी हड़बड़ा गया। मैं अपने सहयोगी को ऊपर से नीचे तक देखा और उसके चेहरे पर एक अजीब सी खुशी देखी। मैं जैसे ही बोलने को हुआ वह बोले "चाहे जितने बजे से हो, मैच तो भारत ही जीतेगा।" मैं समझ तो गया कि वह नेहरु कप फुटबाल के फाइनल की बात कर रहे हैं, मगर अंजान बनते हुए पूछने की हिमाकत कर बैठा "किस मैच की बात कर रहे हैं यादव जी।" थोड़ा मुंह टेढ़ा करते हुए यादव जी बोले "क्यों मजाक करते हैं सरजी। आपको तो पता होना ही चाहिए। आखिर इसकी खबर भी तो आप ही बनायेंगे ना।" मुझे ताज्जुब हुआ कि क्रिकेट के अलावा किसी और खेलों के बारे में सपने में भी नहीं सोचने वाले यादव जी को फुटबाल की इतनी चिंता क्यों हो रही है। खैर, उनको मैंने समय तो बता दिया और अपने काम में लग गया।
यही कोई सात-साढ़े सात का वक्त हुआ रहा होगा। मैं अपने कंप्यूटर से भिड़ा हुआ था जैसा कि अमूमन होता ही है क्योंकि सीसीटीवी कैमरा संपादक की तरह आंखे जो तरेर रहा था। इस दौरान बार-बार "ओह", "अर र", "उफ", "अबे देख के" ........ जैसी आवाजें मेरा ध्यान भंग करने लगीं। इन आवाजों ने फेविकोल के जोड़ की तरह कुर्सी से चिपके होने के बावजूद मुझे उस ओर जाने को मजबूर कर दिया जिस ओर से आवाजें आ रही थीं। देखता हूं तो पांच-छह लोग टीवी की ओर पलक झपकाये बिना नजरें गड़ाए हुए थे। उनको इस तरह से टीवी से चिपके हुए देखकर यह भ्रम हो सकता था कि क्रिकेट का कोई बेहद रोमांचक मैच चल रहा होगा मगर नहीं, यहां तो एक फुटबाल के पीछे 22 खिलाड़ी भाग रहे थे और ये सभी सांस थामे एकटक टीवी से चिपके हुए थे। मैं भी उसी में शामिल हो गया। बमुश्किल दस मिनट में ही खेल के दोनों हाफ गोलरहित समाप्त हो गये मगर भारतीय खिलाड़ियों द्वारा गंवाए गये मौकों की आलोचना शुरु हो चुकी थी, जो उत्साह बढ़ाने वाली थी।
कारण, फुटबाल के बारे में भी कोई ऐसे बात कर सकता है। इस बातचीत में धीरे-धीरे और लोग भी शरीक होते गये और मैच की रोमांचकता हमारे ऑफिस में अपना जगह बना चुकी थी। अतिरिक्त समय में खिंचे मैच में जब रेनेडी सिंह ने फ्री किक पर गोल दागा तो स्टेडियम में क्रिकेट मैचों जैसी भीड़ ने भूटिया एंड कंपनी को सिर आंखों पर बिठा लिया तो यहां यादव जी ने अपने एक साथी को गोद में उठा लिया, मानो उसी ने गोल दाग हो। मैच खत्म होने से महज कुछ सेकंड पहले सीरियाई खिलाड़ी ने बराबरी का गोल दाग दिया तो स्टेडियम का सन्नाटा हमारे यहां भी पसर चुका था। "अबे, स्सा...??? दो मिनट तक गेंद अपने पास नहीं रख सकते थे।" "अबे यार सारा मजा किरकिरा कर दिया।" "चल बंद कर दे यार टीवी, अब तो स्सा...??? हार ही जायेंगे।" मगर कोई टीवी बंद करने के लिए आगे नहीं आया। बहरहाल पेनॉल्टी स्ट्रोक के साथ रोमांच अपनी हद तक पहुंच चुका था। यादव जी एक स्टूल पर बैठे हुए थे लेकिन सडेन डेथ शुरु होते ही वे एक पैर स्टूल पर रखकर जरा टेढ़े खड़े हो गये। यादव जी क्रिकेट के मैचों के दौरान अमूमन ऐसे ही खड़े होते हैं। सातवें शॉट को भारतीय गोलकीपर सुब्रत ने जैसे ही रोका, भारत चैंपियन बन बैठा। लगातार दूसरी बार, उसी सीरियाई टीम को हराकर। मगर मुझे लगा कि भारत नहीं बल्कि यादव जी, गोपाले जी और वहां उपस्थित लोग चैंपियन बन गये हों। यादव जी पीछे पलटे और मुझे उठाकर अतिरोमांचित होकर बोले " सर जी हम फिर चैंपियन बन गये।" उनका यह कहना मुझे जरा भावुक कर गया।
खैर,
क्रिकेट से इतर खेलों में जब भी कोई खिलाड़ी देश का नाम रोशन करता है, मुझे बेहद खुशी होती है। मगर क्रिकेट के प्रति जैसी दीवानगी देखने को नजर आती है, वैसी दीवानगी से कहीं से भी कमतर नहीं था वह माहौल जिसका जिक्र मैं ऊपर कर चुका हूं। दरअसल क्रिकेट की लोकप्रियता की आलोचना करने वालों से जरा मैं कम सहमत हूं, यह चाहने के बावजूद कि क्रिकेट से इतर खेलों को भी सम्मान मिले। मुझे ऐसा लगता है कि जब भी अन्य खेलों में कोई उपलब्धि देश ने हासिल की है, संबंधित खिलाड़ियों को प्रशंसकों ने सिर माथे बिठाया है। चाहे वह विजेंदर व सुशील का बीजिंग में कांस्य जीतना रहा हो, विश्वनाथन आनंद का शतरंज का विश्व चैंपियन बनना रहा हो, सोमदेव का टेनिस में प्रदर्शन रहा हो या सानिया मिर्जा का सनसनीखेज प्रदर्शन। सायना नेहवाल को तो यहां कतई नहीं भुलाया जा सकता जिन्होंने चंद महीनों में खुद को बैडमिंटन की दुनिया में शीर्ष दस खिलाड़ियों में शामिल करा लिया है।
वास्तव में हम भारतीयों को पहले उपलब्धि चाहिए होती है और तब हम उसके प्रति अपनी दीवानगी दिखाते हैं। क्या 1980 से पहले हॉकी की दीवानगी किसी से छिपी हुई थी। शायद नहीं, लेकिन 1980 के बाद हॉकी में पतन से दीवानगी में कुछ कमी आनी शुरु हो चुकी थी। इसी दौरान क्रिकेट, जिसके बारे में लोग बहुत कम जानते थे, ने 1983 में वर्ल्डकप जीतकर इतिहास रच डाला। इस उपलब्धि ने हॉकी से निराश हो चुके प्रशंसकों को क्रिकेट की ओर मोड़ दिया। क्रिकेट में उस उपलब्धि के बाद सफलता के साथ-साथ दीवानगी का आलम पूरे देश को चपेट में लेता गया। कपिल देव, गावस्कर, तेंदुलकर जैसे खिलाड़ी लोगों के मनमस्तिष्क में छाते गये। 1992 में जब पेस ने ओलंपिक में टेनिस में एकल का कांस्य जीता तो टेनिस की लहर छा गयी। बाद में लिएंडर पेस और महेश भूपति की जोड़ी की ग्रैंडस्लैम उपलब्धियों ने देश को सराबोर कर दिया। इसी दौरान सानिया मिर्जा का अभ्युदय हुआ। शुरुआत में बेहतरीन खेल दिखाने वाली सानिया बाद में अपनी खूबसूरती के कारण चर्चा के केंद्र में रहीं और चोटों से उनका कैरियर प्रभावित हुआ मगर टेनिस की लोकप्रियता बढ़ाने में उनका योगदान कहीं से कम नहीं है। 1996 में ही कर्णम मल्लेश्वरी ने वेटलिफ्टिंग में ओलंपिक कांस्य जीता मगर बाद में यह खेल डोपिंग में उलझ गया तो प्रशंसकों ने भी भुला दिया। 2007 में जब भारत ने नेहरु कप का खिताब जीता तो पश्चिम बंगाल के अलावा भी लोग इस खेल से जुड़ गये। उसी की याद में इस साल लोग टीवी से चिपके हुए रहे कि भारत खिताब जीत सकता है। बहरहाल भारत ने भी अपने प्रशंसकों को निराश नहीं किया लेकिन क्या होता अगर भारत हार जाता। शायद 1980 के बाद जो हश्र हॉकी का हुआ वह महज दो सालों में (2007-2009) में फुटबाल का हो चुका होता।
वास्तव में मेरा मन कुलाचें भर रहा है। कुलाचें इसलिए कि हम एक बार फिर नेहरु कप में चैंपियन बनकर उभरे और साबित किया कि हमारी पिछली जीत तुक्का भर नहीं थी। कुलाचें इसलिए भी कि हमने क्रिकेट से इतर फिर किसी खेल में अपना रुतबा कायम किया। कुलाचें इसलिए भी कि हम भारतीय किसी उपलब्धि का जश्न मनाना नहीं चूकते और पलकों पर बिठा लेते हैं। मगर मेरी शिकायत भी है खेलप्रेमियों से कि वे बहुत जल्दी ही खिलाड़ियों व उनकी उपलब्धियों को भुला देते हैं।

2 comments:

  1. Girija Pant
    Nice Dear, Kafi achchhe se likha hai

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  2. मुझे आपके इस सुन्‍दर से ब्‍लाग को देखने का अवसर मिला, नाम के अनुरूप बहुत ही खूबसूरती के साथ आपने इन्‍हें प्रस्‍तुत किया आभार् !!



    शेष कुशल,
    आपका अपना ...
    राजीव महेश्वरी

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