Friday, April 10, 2009

सलीम की जिद 'संवैधानिक' कैसे?

इसमें कोई दो राय नहीं कि भोपाल के निर्मला कान्वेंट हायर सेकंडरी स्कूल के एक छात्र मोह6मद सलीम की दाढ़ी रखने को अपना संवैधानिक अधिकार बताने वाली याचिका पर सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस मार्कंडेय काटजू की टिप्पणी और फैसला संवैधानिक एवं सांप्रदायिक संबंधों के इतिहास में लंबे समय तक ध्वनित होता रहेगा। सलीम ने याचिका में दाढ़ी रखना को अपना संवैधानिक अधिकार बताया जिस पर स्कूल ने ऐतराज जताया। सलीम के संवैधानिक अधिकार के दावे को ठुकराते हुए जस्टिस काटजू ने तीखी टिप्पणी की- 'हम इस देश में तालिबान नहीं चाहते। अगर कल कोई छात्रा बुर्के में आने का अधिकार जताएगी तो क्या हम इसकी इजाजत दे सकते हैं?
उनकी इस टिप्पणी पर आपत्ति होनी थी, हुई भी। बिल्कुल शा4दिक अर्थ के आधार पर जस्टिस काटजू से असहमत होने की पूरी गुंजाइश भी है। यह जरूर कहा जा सकता है कि उन्हें 'तालिबान' श4द का प्रयोग नहीं करना चाहिए था, 1योंकि यह जरूरी नहीं कि सभी दाढ़ी वाले कट्टरपंथी या बंदूकधारी हों। अलगाववादी होने के लिए भी दाढ़ी होनी जरूरी भी नहीं। ढाका में मुस्लिम लीग की जिन 35 लोगों ने परिकल्पना की थी, उनमें चंद लोगों के ही चेहरे पर दाढ़ी थी। पाकिस्तान के आध्यात्मिक जनक अल्लामा इकबाल और कायदे आजम मोह6मद अली जिन्ना, दोनों ही दाढ़ी नहीं रखते थे। पाकिस्तान में तालिबानीकरण की शुरुआत करने वाले जनरल जिया उल हक के भी दाढ़ी नहीं थी। वहीं दूसरी ओर, पाकिस्तान आंदोलन के विरोधी, मौलाना अबुल कलाम आजाद और डॉ। जाकिर हुसैन दोनों ही दाढ़ी वाले थे। अभी हाल में पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति जनरल परवेज मुशर्रफ की भारतीय मुस्लिमों पर की गयी टिप्पणी पर बेहद कड़ा जवाब देकर सुर्खियों में आये देवबंद के मौलाना मदनी भी बड़ी दाढ़ी रखते हैं, लेकिन उन्होंने साथ दिया कांग्रेस का।

भारत में ऐसी जिद क्यूँ
लेकिन, जस्टिस काटजू की टिप्पणी का शा4दिक अर्थ ही 1यों? प्रतीकात्मक अर्थ 1यों नहीं? दाढ़ी और बुर्का तो कुछ बातों और विचारों के प्रतीक हैं। अफगानिस्तान और पाकिस्तान के सरहदी सूबे व बलूचिस्तान के हिस्सों में तालिबान ने तय कर रखा है कि कोई महिला सिर से पांव तक जिस्म को ढके बगैर बाहर नहीं निकलेगी, पुरुष दाढ़ी रखेंगे और ऊंचा पाजामा पहनेंगे। यकीनन यह पाकिस्तान के तालिबानीकरण का संकेत करता है और जो उनके इस फरमान को नहीं मानता उसे कोड़े खाने को तैयार रहना पड़ रहा है। अभी हाल में कई अखबारों में महिलाओं और पुरुषों की कुछ ऐसी ही तस्वीरें प्रमुखता से प्रकाशित हुई थी। अब ऐसे में अगर भारत में कोई दाढ़ी रखने की जिद करे तो 1या अर्थ निकाला जाए?
कॉमन सिविल कोड के पीछे की भावना
अब बात मोह6मद सलीम की। उन्होंने दाढ़ी रखने को संवैधानिक अधिकार का दावा किया। उनकी इस अपील पर 'कॉमन सिविल कोड' पर एक नजर डालना जरूरी हो जाता है। संविधान निर्माताओं ने इसकी जरूरत महसूस की थी, लेकिन उन्हें इस बात का भी अहसास था कि इसे थोपना मुनासिब नहीं होगा। यही कारण है कि इसे नीति निर्देशक सिध्दांतों में रखा गया। कॉमन सिविल कोड की इच्छा के पीछे यह भावना थी कि धार्मिक और सामाजिक परंपराओं को छोड़कर बाकी सभी मामलों में भारत के सभी नागरिक समान जीवन संहिता का पालन करेंगे। 1या इस दृष्टिकोण से नितांत सार्वजनिक स्कूलों में छात्रों को ड्रेस की ऐसी छूट दी जा सकती है। अगर ऐसा हुआ तो स्कूल मदरसों और गुरुकुलों की संस्कृति की खिचड़ी बन जायेंगे।
जिद पर क्यूँ अड़ा नाबालिग सलीम
मोह6मद सलीम का दावा कॉमन सिविल कोड की प्रक्रिया को अवरुध्द करता है। पर सवाल यह भी कि एक लगभग नाबालिग बच्चा ऐसी जिद 1यों कर रहा है और इसे मनवाने के लिए संविधान की दुहाई देने की बात उसके जेहन में आई तो कैसे? कहीं इसके पीछे काल्पनिक असंतोष से उपजा अलग पहचान कायम करने का भाव तो नहीं काम कर रहा। ईरान में शहंशाह रजा पहलवी ने अमेरिका का दामन थाम कर देश के आधुनिकीकरण का रास्ता अपनाया तो उनके विरोध में लोग दाढ़ी रखने लगे और महिलाएं बुर्का पहन कर निकलने लगीं थीं। अयातुल्ला खुमैनी की इस्लामी क्रांति के बाद महिलाएं विरोध जताने के लिए जींस और टॉप में सड़कों पर आने लगीं, जिन्हें नियंत्रित करने में धार्मिक पुलिस को परेशान होना पड़ा।
सेकुलर उपायों से निकलेगा हल
देश के मोह6मद सलीमों को यह समझने और समझाने की जरूरत है कि उनकी परेशानियां दाढ़ी रखने या ऊंचा पाजामा पहनने से नहीं दूर हो सकतीं। विविधताओं वाले इस भारत देश में उनकी अपनी धार्मिक-सामाजिक पहचान के लिए तो जरूर जगह रहेगी, लेकिन इस पहचान के ऊपर धर्मनिरपेक्ष अखिल भारतीय पहचान को हमेशा स्वीकार करना पड़ेगा। आज एयरफोर्स में एक अधिकारी ने दाढ़ी रखने के अधिकार की मांग की है, कल कोई यह मांग भी कर सकता है कि हमें पुरातन सैनिकों की तरह रहने की अनुमति दी जाए। ऐसे में आधुनिक धर्मनिरपेक्ष राज्य की परिकल्पना का 1या होगा। वास्तव में मुसलमानों में शिक्षा, रोजगार और सामाजिक भागीदारी की समस्याएं से1युलर हैं और उनका हल भी सेकुलर उपायों से ही निकल सकता है। दाढ़ी और बुर्के से शिक्षा और रोजगार के मसले हल नहीं होते। सेकुलर समस्याओं का हल से1युलर उपायों से ही निकलेगा।

(सहयोग - टाईम्स ऑफ़ इंडिया)

No comments:

Post a Comment

आपकी टिप्पणी हमारे लिए बेहद खास है।
अत: टिप्पणीकर उत्साह बढ़ाते रहें।
आपको टिप्पणी के लिए अग्रिम धन्यवाद।