Sunday, May 17, 2009

जनादेश-2009 के स्पष्ट संकेत

सबसे पहला यह कि जनादेश-2009 मनमोहन सिंह और उनकी यूपीए सरकार पर जनता के विश्वास की ओर संकेत करता है। जनता यह स्वीकार नहीं कर सकी कि विश्वव्यापी आथिर्क मंदी से निपटने, परमाणु करार के देश हित में होने के बावजूद विपक्षियों ने चुनाव जीतने के लिए कांग्रेस/यूपीए की सार्वजनिक आलोचना की गयी। और, सरकार को अक्षम साबित करने की कोशिश की जबकि जनता अपनी आंखों से देखती रही कि सरकार इन सभी मुद्दों से निपटने के लिए किस प्रकार कोशिश करती रही।
मतदाता के मन में मंदी से मुकाबले की बात जरुर थी और इसके लिए वह स्थायी सरकार चाहती थी। ऐसे समय में मतदाता जांची परखी सरकार भी चाहता था जो वह कांग्रेस को ही समझता है। आमआदमी को मनमोहन सहज, भले और ईमानदार पीएम लगते हैं.
जनता ने आक्रामक और अनर्गल प्रचार पसंद नहीं किया। यही कारण है कि चुनाव प्रचार के दौरान बेहद आक्रामक रुख अख्तियार करने वाली भारतीय जनता पार्टी और उसके गठबंधन को कितना नुकसान उठाना पडा। सीधे-साधे पीएम मनमोहन सिंह को बार-बार कमजोर बताने की भाजपा की रणनीति ने उनकी लुटिया डुबो दी। मनमोहन और यूपीए सरकार पर एनडीए के कडे प्रहार जनता की सोच से मेल नहीं खा सके।
यूपी के पीलीभीत में भडकाउ भाषण देकर अचानक की भाजपा के स्टार प्रचारक बन बैठे वरुण गांधी का सम्प्रदाय विशेष के प्रति अविश्वसनीय रुप से कडी टिप्पणी का नुकसान भी भाजपा को हुआ। इसको लेकर पार्टी में ही चुनाव परिणाम के बाद विद्रोह के स्वर उठने लगे हैं। मुख्तार अब्बास नकवी व शाहनवाज हुसैन ने साफ तौर पर कहा है कि यूपी और अन्य प्रदेशों में वरुण की वजह से मुस्लिम वोट खिसक गये।
चुनाव के दौरान एनडीए का लालक़ष्ण आडवाणी को पीएम के रुप में प्रोजेक्ट करना भी हार का कारण रहा। दरअसल अटल बिहारी वाजपेयी के दौरान भी आडवाणी भाजपा के प्रमुख नेता के रुप में सामने आये लेकिन वाजपेयी की उदार छवि के चलते भाजपा अपने चरम पर रही। लेकिन जब 15वीं लोकसभा चुनाव में आडवाणी एनडीए के मुखौटे के रुप में सामने आये तो जनता ने आक्रामकता से तौबा कर ली। यह वही आडवाणी हैं जो गांधी नगर में चुनाव जीतने के लिए मोहम्मद अली जिन्ना की आदमकद तस्वीर के साथ मुस्लिम एरिया में प्रचार करते नजर आये। जीतने के लिए इस घटिया तरीके को वर्ग विशेष के साथ आम जनता को भी सोचने पर मजबूर कर दिया।
चुनाव से पहले और चुनाव के दौरान राहुल गांधी युवाओं की आस्था के केंद्र के रुप में नजर आये। मतदाताओं ने उन्हें भावी पीएम के रुप में देखा और भविष्य में युवा वर्ग के लिए कुछ करने का जज्बा भी, लेकिन इन चुनाव परिणाम से यह नहीं कहा जा सकता कि यूपीए के पक्ष में लहर रही। इसे विकल्पहीनता के रुप में भी देखा जा सकता है। और, भाजपा कांग्रेस के विकल्प के रुप में मजबूती से सामने नहीं आ सकी।
जहां तक उत्तर और दक्षिण में अलग रुझान की बात है तो यूपी में चतुष्कोणीय मुकाबला था और लोगों ने भ्रम में पडने की बजाय गांधी परिवार पर भरोसा किया। राहुल, प्रियंका और सोनिया गांधी में उन्हें नयापन दिखा।
इस चुनाव में मतदाता ने क्षेत्रीय दलों के दंभ और अकड को नकार दिया। जनता ने उन्हें ब्लैकमेलिंग करते हुए पूरे साढे चार साल देखा और ऐन चुनाव के समय यूपीए से अलग होना उन्हें पसंद नहीं आया। वैसे इस चुनाव से क्षेत्रीय दलों के लोस चुनावों में पराभव के दौर के रुप में भी देखा जा सकता है।
वामदलों की अपने गढ पश्चिम बंगाल और केरल में शमर्नाक शिकस्त भी कुछ यही कहानी कहती नजर आये। परमाणु करार मुद्दे पर पूरे देश ने उनकी नौटंकी देखी थी। इसके अलावा भूमि अधिग्रहण के मामले में भी उनकी तानाशाही पश्चिम बंगाल की जनता ने देखी और उनके रवैये को सिरे से नकार दिया।
और अंत में,
जनता ने एक बार फिर एकदल पर विश्वास जताने का संकेत दिया है। इसका तात्पर्य है कि भाजपा को अब भी चेत जाना चाहिए और नकारात्मक प्रचारों, अनर्गल टिप्पणियों से बचना चाहिए ताकि वह कांग्रेस के समानांतर खडा हो सके। एक मजबूत विपक्ष के होने से सत्ता पक्ष के तानाशाह होने का खतरा नहीं रहता.

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