Sunday, May 17, 2009

जनादेश में दिखी "जन" की ताकत

15वीं लोकसभा चुनाव में एक बार फिर लोकतंत्र की जीत हुई है और जनादेश-2009में जन ने अपनी ताकत दिखा दी। कांग्रेसनीत यूपीए के हाथ आई वोटर की इस ताकत ने बड़े-बड़े राजनीतिक विश्लेषकों को धराशाई कर दिया है। क्या इस परिणाम को कांग्रेस के पक्ष में बिल्ली के भाग्य से छींका फूटने जैसी बात नहीं मानी जा सकती? या फिर वोटर के पास कांग्रेस के हाथ में अपना हाथ सौंप देने के सिवा दूसरा कोई विकल्प नहीं था?
इस चुनावपरिणाम को देश का बौद्धिक नेतृत्व रखने का दावा करने वाले वामपंथियों के मुंह पर वोटर का करारा तमाचा क्यों नहीं कहा जा सकता? और, आम आदमी का सबसे बड़ा हितैषी होने का खम ठोकने वाली भारतीय जनता पार्टी की नैतिक पराजय क्यों नहीं है? और, इस चुनाव परिणाम को ऐसे भी देखा जा सकता है कि भाजपा और कांग्रेस के झगडे में वोट लूटने के इंतजार में बैठी बसपा व सपा जैसी पार्टियों की उम्मीदों पर वज्रपात हो गया। अब इसके जो भी मायने निकालें जायें लेकिन वोटर ने सचमुच "जन" की परवाह न करने वालों की हवा निकाल ही दी है।
उत्तर प्रदेश के संदर्भ में देखें तो इस जनादेश के निहितार्थ और भी तीखे रुप में सामने आ रहे हैं। अपने गुजरने से पहले सड़कों को पानी डलवाकर धुलाई करवाने वाली, चाटुकार अफसरशाही और बिना रीढ़ वाले सलाहकारों से घिरीं प्रदेश की मुखिया क्या इस जनादेश से कोई सबक लेंगी? कल्याण की दोस्ती के मकड़जाल में फंसे और जया प्रदा की लाज बचाने के लिए आजम खां तक को किनारे लगा बैठे मुलायम क्या इस जनादेश के संदेशों को पढ़ने की कोई कोशिश करेंगे? टिप्पणी लिखे जाने तक आजम खां ने पार्टी के संसदीय बोर्ड से इस्तीफा दे दिया है।
क्या इस जनादेश को समझ कर यूपी को अपना मठ मानने वाले भगवाधारी भाजपा "मठाधीश" बनने की बजाय देश की "जनता की पार्टी" बनाने की दिशा में कोई पहल करेगी?
वोटर ने तो अपना काम पूरा कर डाला है और इस जनादेश पर उत्तर प्रदेश की सारी जनता को जश्न मनाना चाहिए। जश्न इसलिए कि इस जनादेश में देश के सबसे अमीर उम्मीदवार पीलीभीत से कांग्रेस के वीएम सिंह की जमानत जब्त हो गयी तो पुरखों की गाढ़ी कमाई को पिछले कई महीनों से लखनऊ की जनता निछावर करते जा रहे अखिलेश दास गुप्ता का भी हाल बुरा ही कर दिया है। साफ संदेश हैं कि पैसे के बूते पर हर तरफ लहर का दावा करने के बाद भी आखिरी फैसला जनता के ही हाथ में है। उत्तर प्रदेश की जनता को जश्न इसलिए भी मनाना चाहिए कि इस जनादेश ने धन बल के साथ ही बाहुबल के भी चारो खाना चित कर डाला है। भारतीय संविधान में आस्था रखने वाले और समाज के नियम कानूनों में यकीन रखने वाले हर एक आदमी को क्या इस बात का जश्न नहीं मनाना चाहिए कि इस जनादेश ने वाराणसी में "गरीबों के मसीहा" कहे गए मुख्तार अंसारी को उनकी हैसियत बता दी है, क्या इस बात के लिए जश्न नहीं मनाया जाना चाहिए कि डीपी यादव, अफजाल अंसारी, रिजवान जहीर, अन्ना शुक्ला, अशोक चंदेल और अतीक अहमद जैसे कथित माननीय भी इस बार संसद की शोभा बढ़ाने से वंचित कर दिए गए हैं।
लेकिन चिंता करने की भी कई वजहे हैं। सबसे बडी चिंता पिछली सरकार की तरह इस सरकार में भी उत्तर प्रदेश को प्रतिनिधित्व से वंचित न होना पड़ जाए। पिछली बार राज्य की लगभग तीन चौथाई सीटों का प्रतिनिधित्व रखने वाली सपा और बसपा की बारी-बारी मदद से मनमोहन सिंह की सरकार पूरे पांच साल चल तो गई लेकिन उत्तर प्रदेश को सरकार में भागीदारी का सुख नहीं मिल पाया। इस बार जनादेश कांग्रेस के पक्ष में भले ही हुआ हो लेकिन उत्तर प्रदेश की तीन चौथाई जनता का प्रतिनिधित्व अभी भी उसकी पिछली सहयोगी पार्टियों के पास ही है। ऐसे में आने वाला राजनीतिक घटनाक्रम जैसा भी हो उत्तर प्रदेश को सत्ता में भागीदारी तो मिलनी ही चाहिए।
खैर जिस जय हो के नारे के कांग्रेस ने चुनाव अभियान की शुरूआत की थी, अब उसे वोटर की जय बोलनी चाहिए और जय बोलनी चाहिए लोकतंत्र की क्योंकि अंत में जन ने अपना जनादेश दे दिया है.

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