Tuesday, June 9, 2009

शायद मैं भटक गया हूं...

क्या तालिबान केवल पाकिस्तान में हैं और हम इससे वंचित हैं? शायद नहीं क्योंकि तालिबान एक विचारधारा है। एक ऐसी विचारधारा जो आधुनिकता से कोसों दूर किसी अंधेरी कोठरी में दम घुटने तक के लिए छोड़ जाती है। एक ऐसा अंधा कुंआ जिसमें सारी हकीकतों का गला घोट दिया जाता है। तालिबान एक ऐसा हथियार है जिसकी धार को तेजकर अमन-ओ-चैन का सिर कलम कर दिया जाता है। दकियानूसी सोच और नामर्दी की हद तक मर्दानगी दिखाने को अगर तालिबान कहा जाय तो कुछ गलत नहीं होगा। यह एक ऐसी सोच है जो विकास को न सिर्फ दूर से सलाम करती है बल्कि उसे सोच में आने से पहले ही दूर छिटक देती है। तालिबान को यह पसंद नहीं कि आवाम में एका रहे, खुशहाली पसंद लोगों के बीच माहौल जिंदादिली जैसा हो। उन्हें तो बस इससे मतलब है कि किस तरह से सीलन भरे कमरे के दमघोंटू माहौल में खुद का श्रेष्ठ (?) सत्ता की तरह से बनाये रखा जाय। दरअसल, जुल्म ढाने और बराबरी के हक की बात करने वालों को पंगु करने का उपकरण है तालिबान।
अभी हाल में मध्यप्रदेश के एक जिले में घोड़ी चढ़े दूल्हे को केवल इसलिए कथित उच्च वर्ग के ठेकेदारों और नुमाइंदों ने मरणासन्न स्थिति तक पीटा क्योंकि दूल्हा उनके वर्ग का नहीं था और घोड़ी चढ़ने की हिमाकत कर बैठा। मानों यह उसका हक न हो, कि वह एक सामान्य या निम्न तबके है कि उसका विरोध करने वाले उच्च तबके के थे और उन्हें इस बात की पूरी छूट थी कि भारतीय संविधान के आदर्शो की चिंदी-चिंदी कर डालें। किस बात का समाजवाद और कैसी आजादी। सोच भी क्या तालिबान से रत्ती भर भी कम। आज भी, जबकि हम चांद पर अपना अक्स छोड़ने की अंतिम प्रक्रिया में हैं, हमारे गांवों में अनुसूचित जाति/जनजाति वर्ग की महिलाओं के, जब तब अपनी मर्दानगी साबित करने के लिए उच्चवर्ग द्वारा पूरे गांव के सामने कपड़े खींच लिए जाता हैं। ऐसा लगता है मानों कौरव और उनकी सभा आज भी बेरोकटोक जीवित है। कौरवों की भरी सभ में द्रौपदी का चीरहरण वाला प्रसंग 21वीं सदी में प्रवेश कर जाने के बाद भी वर्तमान है। कौरव-पांडव युग में लोगों ने द्रौपदी के चीरहरण को देखकर सिसकारियां भरी होंगी या अफसोस जताया होगा, मुझे नहीं मालूम, लेकिन अब इतना तो समझ ही गया हूं कि वर्तमान में जब भी कोई दुःशासन बनकर किसी द्रौपदी का चीरहरण करता है तो लोगों की सिसकारियां ही निकलती हैं। अफसोस या संवेदना जैसा कुछ तो विलुप्त प्राय हो चुका है।
क्या ऐसी घटनाएं इस बात की ओर संकेत नहीं करतीं कि आज भी तथाकथित उच्च वर्ग की सोच में जरा भी फर्क नहीं आया है। क्या, उनकी सोच उन तालिबानियों की सोच से जरा भी इतर है जो पाकिस्तान में लोकतंत्र की कब्र खोदने में जुटे हुए हैं और जब भी कभी ‘लोक’ उनको रोकने की कोशिश करता है, दमघोंटू सीलन भरी मर्दानगी से उनके घुटने तोड़ दिये जाते हैं। जैसे, तुम दबे कुचले ही अच्छे लगते हो। और, हमारे यहां भी निम्न वर्ग का दबा कुचला होना ही विकास का आधार माना जाता है। 15वीं लोकसभा के गठन के बाद महिला आरक्षण बिल पर शरद यादव का जहर खा लेने का शगूफा छेड़ना भी इसी तालिबानी सोच का नतीजा है। कहने को तो वे खुद को महिलाओं की उन्नति का पक्षधर कहते हैं लेकिन इसका विरोध करने में वे सबसे आगे भी नजर आये जिनकी लकीर सपा प्रमुख मुलायम ने भी पकड़ी। आखिर ‘सर्वोच्च सत्ता’ पर ‘घूंघटदारी सत्ता’ को वे कैसे बर्दाश्त करें। देखने वाली बात तो यह होगी कि जिस आधार पर शरद यादव जैसे लोग इस बिल का विरोध कर रहे हैं, इसके पास होने के बाद अपने उस आधार को खुद पर लागू करते हैं या नहीं। भविष्य में होने वाले चुनावों में शरद यादव का लिटमस टेस्ट होगा और टिकट बंटवारे पर भी सबकी नजर रहेगी कि महिला आरक्षण बिल में भी आरक्षण की मांग पर वे खुद कितना अमल करते हैं।
खैर, मैं शायद भटक रहा हूं। पता नहीं मुझे क्या कहना था और मैं क्या कहे जा रहा हूं। शायद मैं खुद इस देश का सबसे बड़ा नपुंसक हूं कि आम लोगों को दबाने वालों का विरोध तक नहीं कर सकता। मैंने खुद को इतना कमजोर महसूस किया कि उससे उबरने को कलम को अपना साथी बनाने की कोशिश की लेकिन... यह कलम भी कमजोर ही निकली. ऐसी कलम की बिसात ही क्या जिसकी स्याही उसी कथित उच्चवर्ग के रहमोंकरम से भरी जाती हो जिसके खिलाफ खड़े होने के लिए हमने कलम का सहारा लिया। .... चलिए बहुत हो चुका, मैं पहले ही भटका हुआ था, ज्यादा बोला तो और, भटक जाऊंगा...

1 comment:

  1. नहीं, आप बिलकुल भटके हुए नहीं है और न ही ज्यादा बोलने से भटक जायेंगे. भटके हुए तो वे होते हैं जो ऐसी घटनाओं पर आप जैसे लोगों के ऐतराज पर चुप रहकर उन्हें 'चुप की नींद' सुला देना चाहते हैं. आपको लगा की आप ज्यादा बोल गए हैं लेकिन हमें लगा की आप ने तो अभी बोलना शुरू ही किया था और...

    कलमें कमज़ोर नहीं है, इन्हें सींचने के लिए पिछली तीन-चार सदियों के दौरान, छापाखानों में बच्चों और स्त्रियों ने पंद्रह-पंद्रह घंटे खटकर , छापेखाने की स्याही से लगने वाली टीबी जैसी बिमारियों से लड़ते हुए अपने जीवन की आहुतियाँ दी है. उनके खून-पसीने से सिंचित कलमें भला कैसे कमजोर हो सकती हैं !

    आपका दर्द कि "ऐसी कलम की बिसात ही क्या जिसकी स्याही उसी कथित उच्चवर्ग के रहमोंकरम से भरी जाती हो जिसके खिलाफ खड़े होने के लिए हमने कलम का सहारा लिया। " एक वक्ती इतफाक है, अंत में कलम मुक्ति पसंद और न्यायपसंद लोगों का ही साथ निभाएगी.

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