Saturday, June 13, 2009

यूपीए और हिंदी से उसका इत्तेफाक

सुधीर कुमार
आप् चाहे तो ट्रैफिक नियम तोड दीजिए और पकडे जाने पर थानेदार के सामने धाराप्रवाह अंग्रेजी बोल दीजिए। अब भले ही वह प्राइमरी कक्षा में पढा कुत्ते/बिल्ली पर निबन्ध ही क्यों न हो, यकीन मानिए। पुलिसिया रौब आपसे डर जाएगा और आपको छोड देगा। वास्तव में आज भी हमारे देश में इस बात को मानने वाले लोगों की कमी नहीं जो समझदार उसे ही मानते हैं जो अंग्रेजी जानता है। और, देश की सरकार भी संभवत: अंग्रेजी से ही दिल का इत्तेफाक जोडती है, अगर नहीं तो भी कम से कम हिंदी से तो शायद नहीं ही जोडती. अगर ऐसा होता तो क्या यूपीए सरकार के नुमाइंदो (मंत्री ) में हिंदी भाषियों या हिंदी भाषी क्षेत्र की यूं उपेक्षा नहीं होती. देश में उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश , बिहार, झारखंड, उत्तरांचल, छत्तीसगढ प्रमुख हिंदीभाषी प्रदेश हैं. लेकिन इस बार इनकी उपेक्षा हावी है. हाल फिलहाल तक मंत्रिमंडल को लेकर मची खींचतान के बीच इन प्रदेशों को मिले मंत्रियों की संख्या पर एक नजर डालते हैं :-
* यूपीए सरकार के पिछले दौर में मंत्रिमंडल पर छाए बिहार से फिलहाल न तो कोई कैबिनेट मंत्री है, न कोई राज्यमंत्री। कुल प्रतिनिधित्व शून्य। हालत यह हुई कि इस बार बिहार में जब ट्रेनें जलाने का कई दिन लंबा सिलसिला शुरू हुआ तो लगा ही नहीं कि केंद्र सरकार की इस सबसे बड़ी संपदा की चिंता करने वाला इस राज्य में कोई है।
* उत्तर प्रदेश से कैबिनेट मंत्री एक भी नहीं, राज्यमंत्री पांच। इनमें से भी दो के पास स्वतंत्र प्रभार। दो ऐसे हैं जो पहली बार ही संसद पहुंचे हैं।
* झारखंड और उत्तरांचल से एक-एक राज्यमंत्री, छत्तीसगढ़ का मंत्रिमंडल में प्रतिनिधित्व शून्य।
* मध्य प्रदेश से दो कैबिनेट मंत्री और एक राज्यमंत्री, जबकि राजस्थान से इसका उलटा, यानी एक कैबिनेट मंत्री और दो राज्यमंत्री।
* हिंदीभाषी कहलाने वाले तीन अपेक्षाकृत छोटे राज्यों हरियाणा, हिमाचल प्रदेश और दिल्ली का केंद्रीय मंत्रिमंडल में प्रतिनिधित्व ठीकठाक ही कहा जा सकता है,
* बीमारु राज्यों की अनदेखी : कभी बीमारू नाम से तिरस्कृत- बाकी सात राज्यों उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान, झारखंड, छत्तीसगढ़ और उत्तरांचल का केंद्र सरकार से रिश्ता नाम का ही जान पड़ता है। ये राज्य पूरे हिंदी क्षेत्र का कहीं बड़ा हिस्सा निर्मित करने वाले हैं. पिछली यूपीए सरकार में इन राज्यों से चार या पांच हाई-प्रफाइल कैबिनेट मंत्रियों समेत कुल 24 मंत्री हुआ करते थे, जबकि इस बार मात्र 15 मंत्री सरकार की शोभा बढ़ा रहे हैं जिनमें 3 कैबिनेट मंत्री, 2 स्वतंत्र प्रभार वाले राज्यमंत्री और बाकी 8 राज्यमंत्री हैं। इनमें भी हाई प्रफाइल सिर्फ कमलनाथ और खींचतान कर सी.पी. जोशी को माना जा सकता है।
* अब जरा अन्य राज्यों से आये मंत्रियों की संख्या पर नजर डालें तो होश ही उड जाते हैं. अकेले तमिलनाडु से 10, महाराष्ट्र से 9, पश्चिम बंगाल से 8 और केरल से 6 मंत्री।
* यानी लोकसभा में 149 सांसद भेजने वाले इन चार राज्यों से कुल 33 मंत्री और 209 सांसद भेजने वाले उन सात राज्यों से मात्र 15 मंत्री!
ऐसा नहीं है कि बीमारु राज्यों में यूपीए का प्रदर्शन खराब रहा हो. पिछली बार की तुलना में इन सातों राज्यों में यूपीए का चुनाव कुछ बेहतर ही गया है। 2004 में इस गठबंधन को यहां से कुल 59 सीटें मिली थीं, जो इस बार बढ़ कर 65 हो गई हैं। फिर सरकार में इन क्षेत्रों की हैसियत इस कदर कम हो जाने की वजह भला क्या हो सकती है? कहीं यह तो नहीं कि पिछली बार इन इलाकों में यूपीए का अर्थ कांग्रेस, आरजेडी और एलजेपी का गठबंधन हुआ करता था जबकि इस बार यह सिर्फ और सिर्फ कांग्रेस है? अगर ऐसा है तो फिर कांग्रेस के लिए यह और खतरनाक संदेश हो सकता है. इस हिंदीभाषी क्षेत्र की जनता ने कांग्रेस में अपना विश्वास जताया है तो कांग्रेस को भी इन राज्यों पर ध्यान देना चाहिए था. आने वाले समय में यह अनदेशी यूपीए खासकर इस देश में लंबे समय से सरकार चलाने की अनुभवी पार्टी कांग्रेस को भारी पड सकती है. या फिर कांग्रेस आज भी पूर्व की तरह इन बीमारू राज्यों की क्षेत्रीय आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए यहां नेहरू परिवार की उपस्थिति को ही पर्याप्त मानती है,
कहीं ऐसा तो नहीं है कि पार्टी और कई लोगों का राजनीतिक कद सिर्फ इसलिए नहीं बढ़ने देती कि आगे चलकर वे कहीं पार्टी पर परिवार के वर्चस्व को चुनौती न देने लगें?
अब फिर बात अंग्रेजी की. अंग्रेजी की खासियत यही है कि वह दुनिया भर की भाषाओं से छांट-छांट कर शब्द चुनती है और अपने भण्डार में शामिल कर लेती है। यानि कि वह विरोध का बिगुल या छल प्रपंच की राजनीति से परे है लेकिन शायद कांग्रेस या यूपीए नहीं. शब्दों का निर्माण किसने किया किसने बनाए हैं ये शब्द यह तो हमें पता नहीं, पर अंग्रेजी भाषा जिस तरह दुनिया भर के शब्द अपने खजाने में शामिल कर रही है उससे तो यही लगता है कि शब्दों को ढूंढने के लिए अच्छे गोताखोरों और शिकारियों की जरू रत होती है। उधर हिन्दी के क्या हाल होते जा रहे हैं। यह तो भला हो इस देश के करोडों लोगों का, जिन्होंने अपने दम पर हिन्दी को जिला रखा है, वरना हमारे हुक्मरानों और अफसरों ने तो हिन्दी को सौतन की बेटी बनाने में कसर नहीं रखी थी। आज भी यह कहने वालों की कमी नहीं कि अंग्रेजी ही इस देश का भला करेगी। कांग्रेसनीत यूपीए ने भी शायद इसी नीति पर चलने में विश्वास कर रही है. विदेशियों की तो यह मजबूरी है कि न चाहते हुए भी उन्हें भारत की आज तरफ देखना पड रहा है. और, भारत को बगैर हिन्दी के स्वीकार ही नहीं किया जा सकता। यही कारण है कि पूरी दुनिया में हाल के नस्लवादी हमलों के बावजूद भारतीयों की मेधा की पहचान पर किसी भी प्रकार का संकट नहीं आया है.
जबकि फिरंगियों/विदेशियों यहां तक कि नस्लवादी हमलों वाले देशों में भी भारतीय पहचान हिंदी के महत्व को समझ लिया गया है, हमारे भारतीय हुक्मरानों को कब यह सलीका आयेगा कि वे राष्ट्रभाषा हिन्दी और उस क्षेत्र को महत्व दें. काश किसी भी सरकार ने ऐसा कभी सोचा होता तो हम बीमारु राज्यों हमारे का रोना न रोकर आज आंध्रप्रदेश, गुजरात जैसे अहिंदीभाषी क्षेत्रों जैसी तरक्की से दो-चार होते.

1 comment:

  1. waise sarkar ki mazburiyan ho sakti hain lekin is aadhar par bhi hindi ya hindibhasi pradesh ki upeksha kyon?

    Anil Kumar Verma, Basti

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