Monday, June 15, 2009

"समरसता" कैसी और कैसी "शर्म"

(सुधीर कुमार)
उत्तर प्रदेश में एक दलित नेता हैं जो कि खुद को "दलितों का मसीहा" कहती हैं और प्रदेश की सत्ता के सिंहासन पर विराजमान हैं। जी हां, बात बहन बहन मायावती की ही हो रही है. स्वर्गीय कांशीराम ने दलितों को समाज की मुख्यधारा से जोडने जिस बहुजन समाज पार्टी (बसपा) का गठन किया, उसके वर्तमान कार्यरुप को देखकर तो कांशीराम की आत्मा क्या महसूस करती होगी यह तो वही जानें, लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि मायावती ने उनकी नीतियों पर पलीता लगाने का काम ही किया है. खैर बात बीएसपी की मायावी नीतियों की नहीं बल्कि "समरसता दिवस" और "शर्म दिवस" की.
दरअसल 19 जून को कांग्रेस महासचिव और देश के युवा नेता राहुल गांधी का जन्मदिवस है. कांग्रेसी जहां इसे समरसता दिवस के रुप में मना रहे हैं वहीं मायावती और उनकी बसपा ने इसी तारीख से शर्म करो अभियान शुरु करने का ऐलान किया है. दरअसल बसपा सुप्रीमो मायावती को लगता है कि "समरसता दिवस" से प्रदेश में भाईचारा टूटेगा और जातिवाद को बढ़ावा मिलेगा इसलिए ऐसे दलों (स्पष्ट रुप से कांग्रेस की ओर है माया का इशारा) को शर्म करो-शर्म करो कहकर हतोत्साहित किया जाएगा। इसके लिए मायावती ने 19 जून को देशव्यापी जागरूकता अभियान चलाने का फैसला किया। अब शर्म किस बात की यह तो माया ही जानें लेकिन इससे समरसता शब्द स्वयं को लघु और विभाजक समझने लगा है. माया की शर्मिंदगी अगर समरसता दिवस को लेकर है तो शर्म किसको आना चाहिए, इसका जवाब माया से मांगा जाना चाहिए. मायावती तो कहती हैं कि कांग्रेस और बीजेपी के नेता दलित वर्ग का हितैषी बनने का ढोंग कर रहे हैं। चलिए माया ही सही, तो फिर वह बताएं कि यूपी की सत्ता पर काबिज होने के अलावा दलित वर्ग से उनका क्या हित रहा और वह उस वर्ग के प्रति कितनी हितैषी रहीं? कितने दलितों का उद्धार उन्होंने किया और कितने दलितों ने खुद को मजबूत महसूस किया. आज भी यूपी के जिलों में दलितों पर अत्याचार की कहानी आम है, बांदा, झांसी, हमीरपुर से लेकर पूर्वांचल के गांवों तक नजर फेर डालिए. कहां पर दलित समाज की मुख्य धारा से जुडा हुआ नजर आया.
और, मायावती को समरसता दिवस मनाने पर शर्म आती है तो यह शर्म उनको तब क्यों नहीं आई जब यूपी को समाजवादी पार्टी समेत अन्य दलों के क्रिमिनल बैकग्राउंड वाले नेताओं को सत्ता से बाहर करने के लिए विधानसभा चुनावों के दौरान चलाये गये अभियान कि " चढ़ गुंडन की छाती पर, मुहर लगाओ हाथी पर" की सफलता के बाद "वे सभी गुंडे" एक-एक कर बसपा में नजर आते गये. उनको तो शर्म तब भी नहीं आई जब जनता ने यह कहना शुरु कर दिया कि "चढ़ गये गुंडन छाती पर, मुहर लगाकर हाथी पर।"
मायावती को शर्म तब भी नहीं आती जब वह सड़को से अपना काफिला गुजरने से पूर्व सडकों को हजारो लीटर पानी से धुलवाती हैं. कई जगह से तो यह भी सुनने को मिला कि सड़कें धुलवाने के लिए मिनरल वॉटर तक का प्रयोग किया गया. यानि जिस जनता ने उन्हें गद्दी पर बैठाया, उससे उन्हें इन्फेक्शन का खतरा था.
यही नहीं, हर बार मुख्यमंत्री बनने के बाद मायावती का गुमान कुछ इस कदर कुलाचें मारता रहा कि वरिष्ठ आईएएस अधिकारियों को मीटिंग के दौरान अपनी कुर्सी से नीचे ही बैठने पर मजबूर किया. यह नीचे बैठना दरी या केवल फर्श पर बैठना ही रहा. उनका खौफ ऐसा रहा कि आईएएस अधिकारी भी हाथ जोडे नजर आये. मायावती को तब शर्म नहीं आई और अब आ रही है, शर्म भी किससे, समरसता से, मानो इस पर केवल उन्हीं का अधिकार है. अगर यही बात है तो मायावती में कब दिखी/दिखेगी समरसता.
* गांधी को भी नहीं बख्शा
कांग्रेस और राहुल गांधी के खिलाफ 19 जून से अपने शर्म करो अभियान की शुरुआत के लिए मायावती की पार्टी ने जो पर्चे जारी किए हैं, उस पर माया को शर्म नहीं आती. इन पर्चों में मायावती ने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को नाटकबाज घोषित कर दिया। मायावती शायद यह भूल गयी हैं कि यह गांधी ही थे, मायावती नहीं- जिन्होंने ऊंच-नीच को खत्म करने के लिए खुद अपने हाथ में झाड़ू उठाकर शौचालय तक साफ किए थे। और, जिस युग में गांधी ने यह काम किया था उस युग में ऐसा सोच पाना भी आम हिन्दुस्तानी के लिए संभव नहीं था। मायावती जिस भीमराव अंबेडकर की बात करती हैं, कुछेक अपवादों को छोड़कर वह गांधीवाद के बड़े समर्थक माने जाते रहे हैं. ऐसे में मायावती की आलोचना क्या अंबेडकर की आलोचना भी नहीं है.
वैसे तो गांधी जी से मायावती का वैर पुराना है। लेकिन इस बार की टीस कुछ और ही है। जिस दलित वोट बैंक के सहारे मायावती जाति की राजनीति करती रही हैं, लोक सभा चुनाव के नतीजों ने यह साफ कर दिया है कि उस वोट बैंक का रूझान फिर से कांग्रेस की ओर बढ़ने लगा है। अपने हाथों से इस वोट बैंक के खिसक जाने की आशंका से मायावती हतप्रभ सी रह गई हैं। और यही उन्हें गांधी के गिरेबान को छूने की हिमायत करने को मजबूर कर रही है। गांधी पर कीचड़ उछालने वाली मायावती शायद यह भूल गयी हैं कि सीबीआई और सुप्रीम कोर्ट में जो भी मामले उन पर चल रहे हैं वे समाज सेवा के नहीं ही हैं।
- अब बात राहुल गांधी की
बसपा के शर्म दिवस के मूल में राहुल गांधी का दलित लोगों के घर में जाकर खाना खाना या रात बिताना है। हो सकता है यह राहुल गांधी का नाटक हो जिसे वह लंबे समय से बिना रुकावट के कर रहे हैं लेकिन केक वाले कल्चर को छोड़कर दलित के घर खाना खाने का नाटक करने की हिम्मत राहुल गांधी के पास है तो सही। क्या मायावती ने कभी ऐसा किया है. शायद वह ऐसा सोच भी नहीं सकतीं. आज मायावती सबसे अधिक वैभवशाली हैं, उन्हें जन्मदिन में करोड़ों के तोहफे मिलते हैं जो उन दलित वर्ग से एकत्रित किए गये हैं, जिसकी वह मसीहा कहलाना पसंद करती हैं. यह रकम इन वर्गों के कई हफ्तों तक पेट पालने के लिए पर्याप्त होती, क्या इस रकम का उपयोग कभी दलित वर्ग के लिए हुआ।
ऐसा लगता है कि मायावती ने अपना विवेक खो दिया है. माया के पास सब कुछ हो सकता है लेकिन पैसों से विवेक नहीं खरीदा जा सकता। वह दलित की बेटी को प्रधानमंत्री नहीं बनने दिया का आरोप लगाकर अपने वोट बैंक को भावुक कर सकती हैं लेकिन वास्तविकताओं से मुंह मोड़ना इस दलित की बेटी को गर्त की ओर ही ले जायेगा. मायावती को अब अपने पत्थरों की मूर्ति से अधिक चिंता उसकी करनी चाहिए जिसने उन्हें ऐसा करने की ताकत दी है. और, राहुल गांधी का जन्मदिवस अगर समरसता दिवस के रुप में मनाने की घोषणा हुई है तो यह उनकी (वोटर) जीत है जिसने राहुल को इसका मौका दिया है. मायावती शर्म दिवस मनाने से ज्यादा उनकी चिंता करतीं तो शायद हकीकत को ज्यादा नजदीक से समझ सकतीं.

2 comments:

  1. हाँ ये खबर तो हमने भी पढ़ी ...बहुत ही बढ़िया आलेख लिखा आपने...

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  2. आपने सही लिखा है।

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