पंकज की कहानी
महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) कार्यकर्ताओं के लाठी-डंडों के शिकार बने पटना के छात्र पंकज कुमार कहते हैं,'' शनिवार की रात मैं यह समझ नहीं सका कि यह क्या हो रहा था. कुछ लोग अचानक मेरे होटल के कमरे में घुस आए.''
पंकज कुमार का कहना है कि अचानक यूँ पीटा जाना मेरी कल्पना से परे था
उनमें से एक ने कहा, ‘यही है... पर एक ने कहा कि पहले यह देख लो कि ये परीक्षार्थी है कि नहीं.'
और उन लोगों ने पहले मेरा एडमिट कार्ड मांगा. फिर जैसे ही वह संतुष्ट हो गए कि मैं रेलवे की परीक्षा देने आया हूँ और मुझ पर मुक्कों और डंडों की बरसात होने लगी. गालियाँ की तो बात ही छोड़िए.
उस वक्त रात के आठ बज रहे होंगे. अंजान जगह पर अचानक यूँ पिटा जाना मेरी कल्पना से परे था. मैं असहाय था. जब मैं गिर पड़ा तो शायद वो लोग चले गए. काफ़ी देर बाद जब होश आया तो मेरे पास एडमिट कार्ड भी नहीं था. मैं रात भर कराहता रहा. और किसी तरह रात बिता सका
जितेंद्र की दास्ताँ
बिहार के सहरसा जिले के परीक्षार्थी जितेंद्र कुमार का परिवार आर्थिक रूप से काफ़ी कमज़ोर है.
जितेंद्र बताते हैं,'' हम लोगों के पास इतने पैसे नहीं थे कि हम किसी होटल के कमरे में ठहर सकें. मैं अपने दोस्त मनोज और विकास के साथ रेलवे स्टेशन के फुटपाथ पर सोया था. अचानक मनसे के दस-बारह कार्यकर्ता लाठी-डंडों के साथ पहुँच गए.
जितेंद्र कहते हैं कि हमें बेहरमी से पीटा गया
उन्होंने आते ही मात्र इतना पूछा कि क्या मैं बिहार से हूँ. बस क्या था. हमारा जवाब सुनते ही वे हमारे बैग की तलाशी लेने लगे और मेरे मोबाइल फ़ोन को अपने क़ब्ज़े में लेते हुए कहा कि मैंने यह मोबाइल चुराया है.
हम तीनों दोस्तों की समझ में कुछ नहीं आया. हमें कुछ भी सोचने का मौक़ा तक नहीं मिला और हमें बेरहमी से पीटा जाने लगा. बचाव के लिए वहाँ कोई नहीं था. सब दर्शक बने देख रहे थे.
हम लोगों की क़िस्मत अच्छी थी कि उनकी नज़र कुछ अन्य बिहारी छात्रों पर पड़ी और वे उनकी तरफ आक्रमक लहज़े में लपक पड़े.
हिलसा के रहने वाले अमित कुमार बताते हैं, '' मुझे इस बात का ग़म नहीं के मुझे मारा-पीटा गया.पर दुख तो इस बात का है कि हम मुंबई में जिस मानसिक यातना के शिकार हुए ऐसा पहले कभी नहीं हुआ. मैं तो यह कहता हूँ कि इतने ओछेपन तक हम कभी नहीं पहुँच सकते. उस वक्त भी नहीं जब मुंबई या महाराष्ट्र का कोई आदमी हमें पटना में मिले.''
हमें ‘भूखा’, ‘नंगा’ .... ‘भिखारी’ क्या नहीं कहा गया. मुझे लात-घूसों का शिकार बनाया गया.
मैं तब भावुक हो उठा जब मेरी आँखों के सामने मेरा प्रवेशपत्र टुकड़े-टुकड़े कर डाला गया. तब तो जैसे लगा कि मेरे पैरों की ज़मीन खिसक गई. मेरे दिल में अब यह बात आई कि बेरोज़गारी के दंश तो वर्षों से झेल रहा हूँ और अब प्रताड़ना और अपना ही झेलना बाक़ी था. वह भी हो गया.
Thursday, October 23, 2008
पटना लौटे छात्रों की दास्तां
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