Tuesday, November 18, 2008

ग्लेशियर के लुप्त होने का ख़तरा


बढ़ते तापमान का भारतीय ग्लेशियरों पर बुरा असर पड़ रहा है और अगर ग्लेशियरों के पिघलने की यही रफ़्तार रही तो हिमालय के ग्लेशियर 2035 तक ग़ायब हो जाएँगे. अध्ययन में पाया गया है कि हिमालय के ग्लेशियरों के पिघलने की रफ़्तार बहुत तेज़ है. शोधकर्ताओं का कहना है कि कश्मीर में कोल्हाई ग्लेशियर पिछले साल 20 मीटर से अधिक पिघल गया है जबकि दूसरा छोटा ग्लेशियर पूरी तरह से लुप्त हो गया है.

ब्राउन क्लाउड
हैदराबाद स्थित राष्ट्रीय भूभौतिकी अनुसंधान संस्थान के मुनीर अहमद का कहना है कि ग्लेशियरों के इस कदर तेज़ी से पिघलने की वजह ग्लोबल वार्मिंग के साथ-साथ 'ब्राउन क्लाउड' है. दरअसल, ब्राउन क्लाउड प्रदूषण युक्त वाष्प की मोटी परत होती है और ये परत तीन किलोमीटर तक मोटी हो सकती है.
इस परत का वातावरण पर विपरीत असर होता है और ये जलवायु परिवर्तन में अहम भूमिका निभाती है.
संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम यानी यूएनईपी की रिपोर्ट के अनुसार दुनिया की सबसे ऊँची चोटी माउंट एवरेस्ट की तलहटी में भी काले धूल के कण हैं और इनका घनत्व प्रदूषण वाले शहरों की तरह है.
शोधकर्ताओं का कहना है कि क्योंकि काली-घनी सतह ज़्यादा प्रकाश और ऊष्मा सोखती है, लिहाजा ग्लेशियरों के पिघलने की ये भी एक वजह हो सकती है.
अगर ग्लेशियरों के पिघलने की रफ़्तार अंदाज़े के मुताबिक ही रही तो इसके गंभीर नतीजे होंगे.
दक्षिण एशिया में ग्लेशियर गंगा, यमुना, सिंधु, ब्रह्मपुत्र जैसी अधिकाँश नदियों का मुख्य स्रोत हैं.
ग्लेशियर के अभाव में ये नदियां बारामासी न रहकर बरसाती रह जाएँगी और कहने की ज़रूरत नहीं कि इससे लाखों, करोड़ों लोगों का जीवन सूखे और बाढ़ के बीच झूलता रहेगा.

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